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विश्वास का घर (डायरी)

डायरी
मीमांसा के डिजिटल प्रारूप पर डायरी स्तंभ का आरंभ साहित्य को विविध विधाओं में समृद्ध करने वाली लेखिका डॉ. पद्मजा शर्मा की शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली डायरी "विश्वास का घर "के अंश से हो रहा है । वरिष्ठ लेखक डॉ. सत्यनारायण  डॉ. पद्मजा शर्मा की लेखकीय यात्रा के आरंभ से लेकर अब तक साक्षी रहे हैं । डॉ. सत्यनारायण की पद्मजा शर्मा के रचना संसार पर संक्षिप्त टिप्पणी के साथ यह डायरी अंश प्रस्तुत है ।



मैं, मैं ही हो सकती हूं ।
                               डॉ. सत्यनारायण

डॉ. पद्मजा शर्मा का साहित्य उस संघर्षशील जीवन की अभिव्यक्ति है जो तमाम वैज्ञानिक उपलब्धियों के बावजूद अधिक जटिल होता जा रहा है । मनुष्य के जीवन पर पडने वाले तमाम दबावों, रोजमर्रा के संघर्षों के बीच उनका साहित्य उनकी जिजीविषा में बराबर भागीदार बनता है । आज के मुश्किल समय से रूबरू इनकी कविताएं अधिक विश्वसनीय और प्रामाणिक लगती है तो उसके पीछे उनकी मात्र सहानुभूति नहीं बल्कि वे खुद उसमें सहभागी हैं । उनमें विश्वास है कि -
 अपने पैरों से उड़ान भरुंगी
 अपने पांव से आगे बढूंगी
 अपनी जबान से अपनी बात कहूंगी 
क्या हुआ धीरे धीरे ,रुक रुक कर ही सही
 डॉ. पद्मजा शर्मा हमेशा से प्रश्नाकुल रही हैं । 1993 की बात है , राजस्थान पत्रिका में मेरा एक स्तंभ "सफरनामा फुटपाथ का" प्रकाशित होता था । उसे पढ़कर वे विश्वविद्यालय में मिलने आयी । उन्हें समझ नहीं आया कि विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाला और इस तरह के तलछट के लोगों पर लेखन ! देर तक बात हुई जो आज तक चली आ रही है । उनके भीतर कुछ ऐसा था जो वे करना चाहती थी । एक ऐसी हूक ,जीवन से जुड़े ऐसे सवाल , जिनका उत्तर जीवन में रूलकर ही ढूंढा जा सकता था । उन्हीं दिनों उनका एक स्तंभ "दैनिक जलते दीप" में प्रकाशित हुआ । उस पर उन्हें "माणक अलंकरण" पुरस्कार से सम्मानित किया गया । उनकी यह प्रश्नाकुलता और कुछ नया करने की जिद उनके भीतर आज तक है । "अंतर प्रांतीय कुमार साहित्य परिषद" द्वारा समय-समय पर उनके द्वारा की गई यादगार गोष्ठियां व सेमिनार भी उनके खाते में दर्ज हैं ।
पद्मजा शर्मा का पहला काव्य संग्रह "इस जीवन के लिए " आया । उसके बाद से वे लेखन में बराबर सक्रिय हैं । कविता के साथ अन्य विधाओं में भी उन्होंने लगातार लिखा । उन्हीं की एक कविता की शीर्षक पंक्ति लेकर कहूं तो "औरत के हिस्से का आसमान " मापते हुए आज वे उस मुकाम तक पहुंची है कि उनके साहित्य की स्त्री ठोस जमीन पर खड़ी अपने पांव मजबूती से रोप रही है । उस जमीन पर जो स्वयं उसकी माथी की हुई है । क्योंकि -
 वे सूरज के साथ उठती हैं
 उसकी रोशनी के साथ फैल जाती हैं चौतरफ ।


 असल में पद्मजा शर्मा के व्यक्तित्व में एक जिद है । चाहे वह जीवन हो या साहित्य , ठान लेती है तो करके ही छोड़ती है । यह अलग बात है कि थोड़े दिन बाद ही वे अलग विषय पर काम करने लगेंगीं , फिर और विषय पर । इसलिए कुछ चीजें अधूरी भी छूट जाती है । पर विश्वास है कि कभी जरूर पूरा करेंगीं । इसी तरह एक बार युद्ध विधवाओं पर काम करने की योजना बनी । कुछ लिखा भी उन्होंने जो महत्वपूर्ण है । जोधपुर पत्रिका में मेरा और उनका कॉलम छपता था । वे फीचर लिखती थी, विशेषकर महिलाओं पर । नई सड़क पर धारु मंडी इलाका बदनाम बस्ती के रूप में कुख्यात है । वे जोखिम उठाकर वहां चली गई और उन महिलाओं से साक्षात्कार कर उनके जीवन और दुख दर्द के बारे में जो लिखा और बताया वह बेहद बेचैन करने वाला था । पद्मजा शर्मा के समूचे साहित्य और जीवन में एक प्रश्नाकुलता है । वे एक साथ कई तरह के सवालों से जूझती  हैं । विशेषकर उन सवालों से जो साहित्य और जीवन में जरूरी हैं । चाहे वे स्त्री से संबंधित हो या तलछट के लोगों के बारे में । उत्तर किसी के पास नहीं है । पर वे अथक उनके उत्तर तलाशती हैं । यह तलाश अनवरत है ।उन्हीं के शब्दों में -
 मैंने किसी को रोका नहीं
 तो मैं किसी के रोके रुकी भी नहीं
 यह न रुकना , लगातार चलना उनकी फितरत है ।
पद्मजा ने कविता के अतिरिक्त कहानियां और शब्द चित्र भी लिखे हैं । डायरी की पुस्तक भी आने वाली है । कहानियों में भी उनका स्त्री स्वर मुखर है । कविता की तरह उनकी कहानियों की स्त्रियां भी जिज्ञासु ही नहीं , मुखर भी हैं । "सरप्राइज" कहानी की लड़की अपनी मां को यह कहने की हिम्मत करती है- "हमें किस बात का डर" यह वाक्य स्वयं उनका और उनके साहित्य का बीज है । शब्द चित्रों में उनका लेखक स्त्री से थोड़ा अलग हटकर भी देखता है । क्योंकि जहां से वे अपने पात्र उठाती हैं वहां स्त्री पुरुष दोनों शोषित व पीड़ित हैं । जीवन को खुली आंखों से देखने के कारण वे ऐसे किरदारों को खोज लाती है जिनसे हम खूब अच्छी तरह परिचित हैं पर हमसे अदेखे रह जाते हैं । यही अदेखा संसार उनके शब्द चित्रों का विषय है ।
 पद्मजा शर्मा के साहित्य की परिधि में स्त्री है । वह स्त्री चाहे वे स्वयं हों या अन्य । दोनों एक स्तर पर समान हैं । वे दोनों पर समान भाव से विचार करती हैं , सोचती हैं । उनके अपने संघर्ष जो प्रत्यक्ष नहीं , एक झीने पर्दे की ओट में है । उनकी एक कविता है "मैं , मैं ही रहूंगी" उसका यह अंश देखिए - 
वह तुलना करता रहा मेरी इससे उससे
 वह मुझमें देखना चाहता था माधुरी दीक्षित 
पर जब मैं बनने लगी माधुरी दीक्षित 
तो वो मुझमें देखना चाहता था किरण बेदी
 और जब मैं बनने लगती किरण बेदी
 तो वह मुझ में देखना चाहता था सुनीता विलियम्स
*****************************
 वो नहीं जानता कि मैं कब की हो चुकी हूं
 बाहर उसकी सोच के दायरों से
******************************
 अब उसका यह जानना निहायत जरूरी है कि मैं, मैं हूं 
मैं ,मैं ही हो सकती हूं और कोई नहीं , कभी नहीं
 स्त्री मात्र का दुख उनका दुख है । उनकी बेचैनी स्त्री मात्र की बेचैनी है । उन्हीं के शब्दों में- "पहाड़ दिखता है चढ़ नहीं पा रही, मैं चली जा रही । एक पुरानी इमारत है , दरवाजा ढूंढ नहीं पा रही , मैं चली जा रही । विशाल समंदर है कि आकाश समझ नहीं पा रही , मैं चली जा रही हूं बादलों के पार ,समंदर के पार ।" उनका यह चलना स्त्री मात्र का चलना है , उस मंजिल तक जो आज नहीं तो कभी तो जरूर मिलेगी । पद्मजा शर्मा की यह बेचैनी ही है कि वह लगातार कुछ नया सोचती ओर रचती हैं । हर बार एक नई ऊर्जा , हर बार नए बीहड़ों में प्रवेश की उनकी आदत है । असल में वे स्त्री जीवन के भयावह यथार्थ को उजागर करती हैं । सहानुभूति नहीं एक ऐसी स्वानुभूति जहां कोई मिलावट नहीं । सच्ची रचना वहीं से उपजती है । शायद इसलिए वे यह कह पाने की हिम्मत करती है कि -

मैं तुम्हारी लगाई आग हूं 
पर तुम्हारे बुझाये अब बुझूंगी नहीं

डायरी अंश

लिखना एक तरह का आंसू पोछना ही है ।


भीतर की दुनिया से जूझती रहती हूं पर बाहर की दुनिया से जूझना बड़ा मुश्किल काम है । अगर बाहर की दुनिया के साथ कोशिश करूं चलने की तो टूट ही जाऊं , बिखर ही जाऊं , थोड़े से समय में ही । यह तो मेरा भीतरी जगत है जिसने मुझे बचा रखा है । मैं बाहर के झंझावातों से घबराकर जितनी जल्दी हो सके भीतर की सीढ़ियां उतर जाती हूं । छिप जाती हूं । कई दिन तक बाहर निकलना ही नहीं चाहती हूं । रोती हूं , अंधेरों की बाहों में पड़ी सिसकती हूं । तब मैं मरना चाहती हूं । तब मेरे पास जीने का कोई बहाना भी नहीं होता । हां , मैं डरपोक हूं । यह अलग बात है कि मैं किसी को वैसी दिखती कम हूं ।
पहले सिर्फ रो लेती थी ,आजकल उदासियों को लिख भी लेती हूं । लिखना एक तरह का आंसू पोछना ही है ,डर को कम करना ही है, जीने की राह बनाना ही है ,मंजिल की ओर बढ़ना ही है । यह लिखना एक नई सुबह के लिए है । नई शुरुआत के लिए है । मैं हर सुबह को ऐसे देखती हूं जैसे सुबह को पहली बार देख रही हूं । हर दिन को यूं लेती हूं जैसे बस यह अंतिम दिन है । हर रात बहुत सारे सपनों के साथ सोती हूं और सपनों के साथ ही उठती हूं कि जाने कब यह सपने मेरी नींदों से गायब हो जाएंगे । मेरा किसी भी चीज पर भरोसा बनता ही नहीं जबकि काम सारे भरोसे पर ही करती हूं । हकीकत यह है कि मुझे खुद पर भरोसा नहीं है , इसमें भरोसे का क्या दोष है ? पर कई बार ज्यादा भरोसा करना भी घातक होता है मगर बिना भरोसे दुनिया कहां चलती है ।
05-01-11

 बडबडाहट

आजकल मैं बड़बड़ाने लगी हूं । हां ,अभी तक अकेले में ही बड़बड़ाती हूं । किसी के सामने ऐसी हरकत करते हुए पायी नहीं गई हूं । इन्हीं बातों को लेकर परेशान होती हूं , किसी से कह नहीं पाती हूं तो ,अपनी जबान से कहती हूं कि , बोलो । कानों से कहती हूं कि, सुनो । आंखों से कहती हूं कि, पढ़ो और अपने आपसे कहती हूं कि ,देखो । और फ़िर बड़बड़ाती हूं कि इस तरह खुद से खुद को ही कहकर , खुद को सुन- सुना कर मन को शांत करती हूं ।
 एकाध बार ऐसा जरूर हुआ कि मैं रसोई में थी , रोटी बना रही थी । जब चकले पर उसे आकार दे रही थी तब मैं बड़े कड़े जवाब दे रही थी, उन प्रश्नों के जो मुझसे सीधे पूछे नहीं गए थे पर पूछ लिया जाते तो उत्तर दे ही देती । मुझे अपने आप से कुछ कहते बेटी ने सुन-देख लिया । पूछा कि यह आप किस से बोल रही थी ? मैंने कहा मैं तो यूं ही गुनगुना रही थी । मगर दर्द कब तक गुनगुनाता रहेगा , कभी रो गया तो ?

 मैं मीरा , महादेवी , सिमोन , प्रभा खेतान की तरह अपनी बात कहना चाहती हूं , सृजन के साथ । यह रोना ऐसा रोना होगा जिसकी आवाज सृष्टि में सदा गूंजती रहेगी । दसों दिशाओं में सुनती रहेगी वह रुलाई । क्योंकि वह रुलाई मेरी होगी । क्योंकि वह मेरे हृदय को चीर कर निकलेगी । क्योंकि वह सामने वाले के हृदय को चीर कर रख देगी ।
12-03-11

अभेद्य दीवार

मैंने अपने चारों और एक अभेद्य  दीवार चिन ली है । दुनिया रहे मुझसे दूर और दूर ...हां, यही चाहती हूं , मैं । पास रहकर देख लिया , बहुत घिनौना है सब कुछ । नजदीकियों से डर सा लगता है , दूरियां तसल्ली देती लगती हैं पर क्या वाकई आप ऐसा चाहते हैं  ? नहीं , पर हो कुछ नहीं सकता । जब किसी की आंखों पर बंद जाए पट्टी और वह हो जाए अंधा। वह हो जाए बहरा , होते हुए आंखें होते , हुए कान ! मैं चाहती हूं कि दीवार और मजबूत हो जाए । यह सोचते हुए मैं और कठोर हो जाती हूं ,हर निर्णय में । और सोचती हूं अभी और गुंजाइश है और कठोर होने की । हम औरतें भी ना कठोर होते- होते इतनी कठोर हो जाती हैं कि एक बिंदु पर आकर बर्फ की तरह पिघलने लगती हैं ।
02-06-11

बदलना

हम पल-पल बदलते हैं । जो हम कल थे आज नहीं हैं । आज हैं वैसे कल नहीं रहेंगे पर बदलने के नाम पर भी कितना बदलते हैं हम ?  क्या बदली हमारी हंसी , करुणा , स्वभाव ,प्रकृति ? नहीं न ? फिर बदलने का क्या अर्थ ? न बदलने जैसा ही है बदलना भी ।
हम अपने भीतर कितनी लंबी यात्राएं कर आते हैं , कुछ पलों में , यह संभव हो पाता है अपने भीतर , सिर्फ अपने भीतर । लंबी यात्राओं के बाद बदलाव तो आएंगे ही । पर यह सच है कि मैं बदल कर भी ज्यादा कहां बदलती हूं । कभी-कभी मुझे पता भी नहीं चलता और मैं बदल जाती हूं । खुद को खुद भी नहीं पहचान पाती हूं ! हां मैं हूं ही ऐसी । कोई नहीं जान पाता कि, मैं यह हूं या वह हूं । जो कल थी वह सच थी कि, आज हूं वह सच है ? जाने कल क्या हो जाऊंगी ? मैं अपने भीतर निरंतर टूटती -जुड़ती रहती हूं और बढ़ती रहती हूं । मैं बढ़ती ही जाऊंगी ,बदलती ही जाऊंगी पर आप मुझे मेरे 'स्व' के साथ ढूंढेंगे तो मिल जाऊंगी , वही शुरुआत वाली मैं ।
15-06-11

आज मैंने पति और बेटे को गर्मागर्म फुल्के नहीं खिलाए

मन नहीं लग रहा है लग रहा है । जैसे कुछ अनहोनी होने वाली है , पर क्या ? नहीं पता । मौत आने वाली है ?
लगता तो नहीं ।
एक औरत को ऐसा क्यों लगता रहता है अक्सर, जब कि वह अपने परिवार के साथ रहती है , सभी सुख-सुविधाओं के साथ ?
 क्या औरत अपने मन का करती है तब उसे ऐसा लगता है ?
शायद हां ।
 आज मैंने पति और बेटे को गर्मागर्म फुल्के नहीं खिलाए , बना कर रख दिए । क्योंकि मुझे लिखना था ।

आज मैंने बेटी से कहा कि मुझे अपने लिए समय नहीं मिल रहा है । काम में तुम भी मदद किया करो । मुझे पढ़ना है ।
मैं उदास हूं और मेरा मन नहीं लग रहा है ।
 पर जब अपने मन का नहीं करती तब भी मन कहां लगता है ? 
मेरे मन की बात मत करो । इसकी , उसकी, सब की सुनता है ।
सबकी नहीं कर सकता तो दुखता है ।
 दुखता है तो कहा जाता है कि , मन नहीं लग रहा है । जैसे कुछ अनहोनी होने वाली है , पर क्या ? नहीं पता 
यह अपराध बोध है ? नहीं पता कि औरत को ही क्यों होता है अपराध बोध  हमेशा ? जबकि कोई अपराध नहीं करती है वह ।
 अपराध करे, उस दिन अपराध बोध हो तो कोई बात नहीं पर बिना अपराध के यह बोध मार सा देता है ।
मन लगना चाहिए न , जीना है तो ?
11-08-12

कीलें निकालती हूं


मैं लिखती थोड़े ही हूं । मैं तो कीलें बाहर निकालती हूं । यह कीलें सदियों पुरानी है । जंग खा चुकी है । मेरे शरीर में इनका जहर फैल रहा है ,उसका असर मेरे दिमाग पर हो रहा है । ये कीलें अपमान की है , बेइज्जती की है , स्त्री को दोयम दर्जे का समझने की सोच की है , उसे भोग्या मानने की है ,उसे सिर्फ शरीर मानने की है ,उसे जन्मते ही मारने की है । जब तक एक भी कील मेरे मन पर ठुकी हुई है तब तक मेरा लेखन जारी रहेगा । मुझे लगता है इस जन्म में तो कीलों से मुक्ति क्या मिलेगी ? इसलिए लिखना पड़ेगा ही । तब तक, जब तक मुझे इंसान न मान लिया जाएगा , इस समाज द्वारा ।
20-08-13

मर जाएगा पर जीते जी नहीं मरेगा


मेरा आज के दिन कोई भी मित्र नहीं है । यह अलग बात है कि कभी-कभी लगता है जैसे मैं कितनी खुशनसीब हूं  वो मित्र है , वो खास है , वो मेरा है , वो विश्वसनीय है पर वक़्त आते ही पोल खुल जाती है । पढ़ा था कि जयशंकर प्रसाद जी को राज रोग हो गया था  और वे पैसे के अभाव में इलाज नहीं करवा पा रहे थे । पर उन्होंने किसी से मदद नहीं ली । उन्हें कोई मदद दे भी तो सकता था जिससे उनके स्वाभिमान को चोट न पहुंचे । पर फिर वही सवाल उठ जाता है कि कोई मित्र होता तो शायद यह संभव हो जाता । उनका कोई मित्र था ही नहीं । कोई किसी का दोस्त नहीं होता इस दुनिया में । सब एक-दूसरे से अपने-अपने स्वार्थों से ही जुड़े होते हैं । स्वाभिमानी व्यक्ति का सिर झुकाने के लिए सब तत्पर रहते हैं , उसके दोस्त भी , उसके अपने भी ।उसकी रीढ़ को सीधा रखने में कोई मदद नहीं करता और सीधा , स्वाभिमानी व्यक्ति सदा ही धोखा खाता है , खासकर अपनों से ! पर यह भी सच है कि भले उनकी रीढ़ की हड्डी टूट जाए पर कभी झूकती  नहीं । आंसू बहा लेगा पर सिर नहीं झुकाएगा । मरने को मर जाएगा पर जीते जी नहीं मरेगा ।
28-12-13

डॉ. पद्मजा शर्मा 


उच्च शिक्षा में  वर्षों का  अध्यापन का अनुभव  रखने वाली डॉ. पद्मजा शर्मा का रचना संसार विविधता पूर्ण रहा है । कविता , कहानी ,लघुकथा, शब्द चित्र ,आलोचना, साक्षात्कार ,संपादन आदि विधाओं में उनका रचनात्मक योगदान रहा है । विभिन्न प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित डॉ. पद्मजा शर्मा वर्तमान में जोधपुर (राजस्थान) में रहकर स्वतंत्र लेखन कर रही हैं ।
ईमेल आईडी- padmjasharma@gmail.com



टिप्पणियाँ

  1. बधाई पद्मजा, अपने अन्दर की आग को ठोकती रहो कील बनकर।डायरी के अंश पढ़कर अच्छा लगा इसलिये बधाई व मन उदास भी हो गया।सदियां बीत गईं पर आम स्त्री के जीवन मे कुछ बदलाव नहीं होरहा है।वह घुटेगी,रोएगी, आंसू को डायरी में उतरेगी,फिर? फिर उदास हो कर भी हँसेगी।खैर.........प्यार भरी बधाई पद्मजा

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रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक जयपुर में हो रहा है ,जबकि दुनिया में नाटक कहीं से कहीं पहुँच चुका है |” उनकी चिंता वाजिब थी क्योंकि राजस्थान

वंचना की दुश्चक्र गाथा

  मराठी के ख्यात लेखक जयवंत दलवी का एक प्रसिद्ध उपन्यास है जो हिन्दी में घुन लगी बस्तियाँ शीर्षक से अनूदित होकर आया था। अभी मुझे इसके अनुवादक का नाम याद नहीं आ रहा लेकिन मुम्बई की झुग्गी बस्तियों की पृष्ठभूमि पर आधारित कथा के बंबइया हिन्दी के संवाद अभी भी भूले नहीं है। बाद में रवीन्द्र धर्मराज ने इस पर फिल्म बनायी- चक्र, जो तमाम अवार्ड पाने के बावजूद चर्चा में स्मिता पाटिल के स्नान दृश्य को लेकर ही रही। बाजारू मीडिया ने फिल्म द्वारा उठाये एक ज्वलंत मुद्दे को नेपथ्य में धकेल दिया। पता नहीं क्यों मुझे उस फिल्म की तुलना में उपन्यास ही बेहतर लगता रहा है। तभी से मैं हिन्दी में शहरी झुग्गी बस्तियों पर आधारित लेखन की टोह में रहा हूं। किन्तु पहले तो ज्यादा कुछ मिला नहीं और मुझे जो मिला, वह अन्तर्वस्तु व ट्रीटमेंट दोनों के स्तर पर काफी सतही और नकली लगा है। ऐसी चली आ रही निराशा में रजनी मोरवाल के उपन्यास गली हसनपुरा ने गहरी आश्वस्ति दी है। यद्यपि कथानक तो तलछट के जीवन यथार्थ के अनुरूप त्रासद होना ही था। आंकड़ों में न जाकर मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि भारत में शहरी गरीबी एक वृहद और विकराल समस्य

फ्लैशबैक

फ्लैशबैक -१ जब सभी अतीत स्मृतियों में जा रहे हैं तो कुछ क्षण मुझे भी जाने की इजाजत दें। हमारे संगठन में एक कर्मठ ट्रेड यूनियन नेता, लेखक और लोकशासन पाक्षिक के संपादक बी. पी. सारस्वत हुआ करते थे जिन्हें आदर से सब लोग चाचा कहा करते थे। उन पर विस्तार से कभी आगे लिखूंगा। अभी तो अपने बारे में उनके कुछ उद्गार- राजाराम भादू अनजाने में एक ऐसा नाम. उभर कर सामने आया है जिसे अब सभी तरफ जाना जाने लगा है। इस नवयुवक साहित्यकार में प्रतिभा है। निरंतर चिंतन से विकसित ऊर्जा और कठिन परिश्रम के बलबूते यह रचना- कर्मी अपने सापेक्ष हस्तक्षेप से अपना स्थान बनाने में सफलता से अग्रसर है। युवा आलोचक के रूप में जहां राजाराम भादू स्पष्ट रूप से उभर कर प्रतिष्ठा पा चुके हैं, वहींं दिशाबोध साहित्यिक पाक्षिक के माध्यम से उन्होंने अपनी विकसित दृष्टि का परिचय दिया है। कविता, कहानी, आलेख से लेकर अनुवाद के क्षेत्र में उनका दखल है। साहित्य के अलावा सिनेमा, रंगमंच और अन्य कलाओं के अध्ययन में उनकी गहरी रुचि और जन- संस्कृति की अच्छी पकड के कारण उनका दायरा व्यापक हुआ है। राजाराम भादू की सहज संवेदनशीलता के पीछे उनकी ग्राम्य जी