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डायरी - रामानंद राठी

डायरी
डायरी में प्रस्तुत है लेखक रामानंद राठी की डायरी के अंश । रामानंद राठी की चार दशकों में फैली रचना यात्रा पर टिप्पणी की है उनके सृजन के सहयात्री आलोचक मनु शर्मा ने । आलोचक मनु शर्मा की यह टिप्पणी न केवल लेखक रामानंद राठी के सृजन के सरोकारों पर दृष्टि डालती है अपितु उनकी रचना प्रक्रिया की समग्रता में गहराई से विवेचना भी करती है ।
रामानंद राठी की रचना प्रक्रिया
                                                       ■   डॉ. मनु शर्मा
रामानंद राठी ने कहानियों के अलावा शब्द चित्र , रिपोर्ताज ,नाटक, जीवन वृत्त, इतिहास और कला संस्कृति पर भी लिखा है । और इन सभी में उनकी रचनात्मकता के अलग-अलग पहलू प्रकट हुए हैं । अधिकतर रचनाओं में उनका पैतृक गांव गूंती महानायक की भांति मौजूद है। ऐसा महानायक जो निरंतर अपनी सीमाओं को लांघ कर विराट रूप में सामने आता है । जैसे 'पिंड में ब्रह्मांड '।

 अपनी जड़ों की पहचान के दौरान राठी ने उन संदर्भों की खोज की है , जिनसे आजाद भारत के गांव में अप-संस्कृति , नैतिक पतन , मनुष्यता के लोप और उपभोक्ता संस्कृति के क्रूर चेहरे को अच्छी तरह पढ़ा जा सके । इन्हीं के चलते गांव की सहजता , सादगी , भोलापन और सामुदायिकता दुर्लभ होती चली गई ।

स्थानीयता ,भौगोलिक परिवेश, इतिहास और सांस्कृतिक चेतना के साथ सौंदर्य बोध ने भी राठी की रचनाओं में प्रमुखता से अपनी जगह बनाई है । एक कुशल फोटोग्राफर की तरह जीवन यथार्थ को पूरी गतिशीलता में ग्रहण करके शब्द चित्रों में कैद कर देना उनकी एक रचनात्मक प्रवृत्ति है । समृद्ध और सूक्ष्म पर्यवेक्षण राठी की रचना प्रक्रिया का महत्वपूर्ण पड़ाव है । अपने आसपास की वस्तुओं , व्यक्तियों , प्रकृति और समाज की छोटी से छोटी गतिविधि को पूरी शिद्दत से अनुभूत करते हुए अपनी संवेदनाओं को विस्तार देकर वह छोटे फलक की रचनाओं को भी बड़ी बना देता है ।
राठी की कहानियों का कलेवर ज्यादा विस्तृत नहीं होता । वह किसी विशेष अभिप्राय को कथानक के क्रम में ढालता है । कथानक की संरचना के लिए चरित्रों और घटनाओं की अपेक्षा वह परिवेश रचना पर खासा बल देता है  । भू-दृश्य, लोक व्यवहार और सांस्कृतिक संदर्भ उसकी परिवेश रचना के मुख्य घटक हैं । उसकी कहानियों और शब्द चित्रों में घटनाओं के स्थान पर परिवेश और मानवीय चरित्रों का राई रत्ती ब्यौरा मिलता है । संयोग तत्व और नाटकीयता  कहीं नाम मात्र को दिखाई पड़ती है । अपने अभिप्राय की सौंदर्यमूलक अभिव्यक्ति के लिए वह पहले लिखता है और फिर उसे बार-बार रचता है ।
अपने वैचारिक आग्रहों को राठी ने कहीं भी बंधे बंधाए सांचे में प्रस्तुत नहीं किया है । वे या तो चरित्र के स्वभाव का हिस्सा होते हैं या फिर उस परिवेश की उपज जिसमें चरित्र विकसित हुआ है । कुछ नहीं होते हुए भी बहुत कुछ होने की हेकड़ी को जीते हुए चरित्रों की बनावट में राठ अंचल का वह अक्खड़पन है जिसके लिए कहा गया है कि 'काठ नवे पर राठ नवे ना ।' व्यवस्था की विसंगतियों और जीवन मूल्यों के गहराते संकट की रचनात्मक अभिव्यक्ति को वह लेखककीय जिम्मेदारी मानता है ।
राठी की रचनाएं अन्तर्जगत और बाहरी दुनिया की मिली जुली प्रतिक्रिया है । स्मृतियां उनके लिए प्रेरक तत्व हैं । उल्लेखनीय है कि मौजूदा यथार्थ की क्रूरताओं से वह अपनी स्मृति को निरंतर बचाए रखता है । व्यवस्था की बनावट में जो खोट है , उसे अपनी कहानियों, शब्द चित्रों और रिपोर्ताज के जरिये पाठकों तक पहुंचाने में उसने कोई कसर नहीं उठा रखी ।
 स्थानीयता को वह इस तरह ग्रहण करता है, जैसे कोई बच्चा पहली बार अपने परिपार्श्व को देखकर चकित हो रहा होता है । स्थानीयता के लिए वैसी बाल सुलभ अन्तरंगता , लोगों से आत्मीय लगाव और परिपार्श्व में तल्लीनता के रहते ही स्थानीयता की प्रतिध्वनि उसके यहां कदम-कदम पर सुनाई पड़ती है ।
स्वतंत्र रूप से राठ का इतिहास लिखने के अलावा राठी ने कहानियों, शब्द चित्रों, जीवन वृत्तों में भी अपनी इतिहास दृष्टि का बड़ा रचनात्मक उपयोग किया है । लोक जीवन का अध्ययन करते हुए वह लोक संगीत, लोक नाट्य ,लोक नृत्य ,लोक कलाओं पर जिस वैचारिक विविधता और संतुलन का परिचय देता है , वह उसकी समृद्ध सौंदर्य चेतना का साक्ष्य है ।
अंत में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि राठी ने अपनी रचनाओं से समाज में मौजूद सामंती अवशेषों पर चोट की है । यह चोट बाहर से दिखाई नहीं देती लेकिन भीतर ही भीतर व्याकुल करती रहती है । उनकी रचनाओं में जीवन सहज रूप में सृजित है । इतना सहज कि उसे सांसो की आवाजाही में अनुभव किया जा सकता है ।

डायरी अंश - 
                                         रामानंद राठी
एक
16 मई, 2001, सांगानेर, जयपुर
खुद को स्थगित कर लेने और चुप रहने से कुछ नहीं हुआ। स्थितियाँ निरंतर खराब होती जा रही हैं। भूख, कुपोषण और बीमारी से मरते नौनिहालों की संख्या बढ़ रही है। वे माता-पिता जो अमानवीय स्थितियों के दबाव में अपनी संतानों तक को बेच देते हैं, उनकी संख्या निरंतर बढ़ रही है। युवाओं को सपने थमा दिए गए हैं ताकि वे अपने गाँव-देहात और आस-पास की व्यथा से आँखें उठाकर उन सपनों पर टिका दें...... जहाँ नयी-नयी उपभोक्ता सामग्रियाँ और उन्हें प्राप्त करने की समयबद्ध योजनाएँ हैं। प्रतिभा का एकमात्र उपयोग जैसे संपत्ति बटोरना हो गया है। कानों से उन पर्दों को ही हटा देने का देशव्यापी उपक्रम चल रहा है, जिनसे आहत हृदयों की चीत्कारें सुनी जा सकें। कितना घातक, कितना दूरगामी, कितना पूर्व-नियोजित षड्यंत्र है यह।

दो
3 जून, 2001, जयपुर
जिस घर में इन दिनों मैं रह रहा हूँ, वह एक विधवा का घर है। मुझे नहीं मालूम कि इस स्त्री के पति की मृत्यु को कितने दिन बीत गए लेकिन इस घर को देखकर मैं बता सकता हूँ कि यह बहुत पुरानी घटना होगी। अब यह स्त्री अधेड़ है और यह हादसा करीब-करीब इसके युवा दिनों की घटना होगी। वैधव्य अब इस स्त्री के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का हिस्सा बन चुका है। इस घर की हर चीज मानो प्रकृति के उस नैसर्गिक आनंद को उठाते हुए अजीब अपराध-बोध में डूब जाती है.... कि कोई एक पुरुष था जब हँसना और सितारों से आँख मिलाना एक स्वाभाविक जीवन-प्रसंग था...कि अब आनंद एक अनिवार्य रूप से दबा दिए जाने वाली अपराध भावना है। इस घर की दीवारें, घास, पेड़-पौधे,...सब कुछ जैसे विधवा हो गया!
वैधव्य की भी एक गतिशीलता और सृजन हो सकता है। उन पौधों पर जहाँ रसदार फल नहीं लगते, पत्तियाँ अधिक लचकदार और सुंदर पर्ण-विन्यास लिए हो सकती हैं। लेकिन यहाँ तो जैसे सब कुछ अपने होठ सिले हुए है। दीवारों से झांकती ईंटों के होठ भी मानो सिल दिए गए हैं। एक आदमी था जो मरते वक्त इस घर के जीवन की मानो गठरी बाँध कर उठा ले गया।
(सभी चित्र -अमित कल्ला)
तीन
29 जुलाई 2001, सांगानेर, जयपुर
इतनी खुली और खुशगवार शाम में भी जैसे दम घुट रहा है। आकाश में रोशनी के चश्मे बह रहे हैं और परिंदे बरसात-बाद की इस ठंडी हवा में जैसे नाच उठे हैं। एक परिंदा है.....बहुत जीवंत और फुर्तीला। आसमान में एक कोने से दूसरे कोने तक कुलाँचें भर रहा है। आकाश को नापने की जैसे धुन सवार है इस पर। धरती पर बसी दुनिया को बौना और बचकाना बना दिया है अथाह नीलेपन में परिंदों की इन उड़ानों ने।
आकाश में जीवन ही नहीं रह जायेगा यदि परिंदों की उन्मुक्त हलचलें वहाँ न हों।
इस चमकीले और खुशनुमा मौसम में भी मेरा दम घुट रहा है। एक परिंदे का विलाप मुझे बेचैन कर देता है।
मेरे सर के ऊपर से छोटे-छोटे पंछियों की एक कतार पर मारते हुए गुजर जाती है।

चार
24 अक्टूबर 2001, दुर्गा अष्टमी, सांगानेर, जयपुर
जड़ों से ही मिलता है जीवनरस। पेड़ों के लिए जितना यह सही है उतना ही निर्विकल्प सत्य यह मनुष्यों के लिए भी है। बिना जड़ों के कोई भी मनुष्य अपने वैभव में एक कृत्रिम फूल जैसा है-कम से कम उसकी आत्मा में, अस्पष्ट ही सही, यह अहसास एक स्थायी अनुभूति का रूप ले लेता है।
वी.एस. नायपाल को ही देखें। उनके लेखन में अपनी जड़ों की यह खोज, उन्हें सुदूर इतिहास के सांस्कृतिक भूगोल में ले जाती है। अपना चेहरा देखने के लिए आपको अपनी जमीन पर भरे पानी के सामने ही झुकना होगा। किसी और भू-भाग पर भरे पानी में अपने चेहरे की आप सही प्रतिकृति नहीं देख सकते।

पांच

20 मई 2002, लक्ष्मणगढ़, अलवर
इस सराय में और इस कस्बे में आज का दिन। एक चैदह-पन्द्रह वर्ष का किशोर मेरी बगल के कमरे में ठहरा है। वह ग्वालियर से किशमिश लाकर यहाँ बेचता है। इस धर्मशाला के बाहर मैं आज, ठेले पर लगी उसकी इस मीठी, स्वास्थ्यवर्धक दूकान को मुख्य गेट से आते-जाते देखता रहा। वह खुद भी बहुत मीठा-सा और विनम्र है। उसकी आँखें बताती हैं कि वह एक भावुक लड़का है। इसीलिए उसने किशमिश को चुना।
इस सराय का प्रबंधन एक युवा नेपाली के हाथों में है जिसका पिछले दिनों विवाह हुआ है और वह वहाँ से हाल ही में अपनी पत्नी को लाया है। मैं टूटी-फूटी नेपाली में एक-आध वाक्य उससे बोलता हूँ। फिर वह सुंदर लड़की न जाने क्या-क्या मुझे नेपाली में बताती जाती है। यह बहुत कुछ उलाहने जैसा है। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा लेकिन बहुत संजीदगी के साथ इस तरह सर हिलाता रहता हूँ जैसे सारी बातों को समझ रहा हूँ।
शाम ढलती है तो एक व्यक्ति बहुत संकोच के साथ आता है और बताता है कि जिस कमरे में मैं आज ठहरा हुआ हूँ उसमें कल तक फेरी लगाकर चद्दरें बेचने वाले कुछ व्यापारी रुके हुए थे। वह कुछ देर उस कमरे को ठगा-सा देखता रहता है और मेरे चेहरे पर कुछ ढूँढ़ता रहता है। लगता है इस व्यक्ति की उन लोगों से गहरी आत्मीयता हो गई थी और मुझे इस कमरे में वह स्वीकार नहीं कर पा रहा। अंत में, बहुत टूटे हुए मन से, वह अपने कमरे में लौट जाता है।

छह
17 दिसंबर 2005, जयपुर
स्मृति का संबंध काल से है और अवधारणा का स्मृति और विवेक दोनों से है। इसीलिए नया जीवन शुरू करने में स्मृति और अवधारणा-दोनों बाधक बनती हैं।
नया जीवन! नये जीवन का संबंध शरीर और मन, भौतिक और पराभौतिक, दोनों से है। यह दोनों स्तरों पर घटित होना चाहिए-सम्पूर्ण नवजीवन!
स्मृति को योग से इसीलिए बेधा जा सकता है क्योंकि योगी स्मृतिजाल के भीतर से, अपनी सूक्ष्म योगात्मा, जिसे योग-सूत्र में हवा से भी महीन कहा गया है, के जरिए स्मृतिजाल के पार जा सकता है। यहाँ तक कि कोई योगी अपने बचपन की पहली किलकारी तक को फिर से दुहरा सकता है। हालांकि यह बहुत कठिन होगा लेकिन ऐसा संभव है। यह सब सिद्धि के अनुसार होता है। कुछ जंतुओं में जैसे शारीरिक विकास की अवस्थाओं में प्रत्यावर्तन (पीछे लौटना) होता है।
तो क्या वह योगी जब वापस अपने वर्तमान को प्राप्त होगा तो एक स्मृति खोये विक्षिप्त के समान होगा? ऐसा नहीं होता-स्मृतिजाल तब उसके सामने भावना-तंतुओं के समान नहीं, बल्कि एक केंचुल के समान लटका होता है।
ऐसा दुर्लभ योग निर्जन कंदराओं में अर्जित होता हो, ऐसा भी नहीं है। यह मन और शरीर के अंतरण की एक दुर्लभ स्थिति है। कई बार कई वेश्याएँ बहुत प्रसिद्ध साध्वियाँ हुई हैं। मोक्ष के द्वार, यदि वे सचमुच कहीं हंै, तो निरंतर प्रयासरत मुमुक्षुओं के बजाय ऐसे ‘अधम प्राणियों’ के लिए आश्चर्यजनक ढंग से स्वतः खुलते पाए गए हैं।
लिखना भी एक योग है। संसार को और स्वयं अपने को.....देखना और शब्दों के माध्यम से उसका पुनर्सजृन!

सात
17 फरवरी 2006, नीमराणा
आतिशबाजी के सितारा मंडप से चुंधियाते आकाश में जब धमाकों की आवाज ठहर गई तो यह ड्रिंक सेशन के खत्म होने का संकेत था। ऐतिहासिक नीमराणा फोर्ट की बासंती गर्माहट में लिपटे शब्द-शिल्पियों की यह उपस्थिति वैश्विक मनुष्य के भीतर पथरा रही संवेदनाओं में पुनः स्पंदन का प्रयास था। वे अपनी पहचान, विरासत और स्व-स्थापना के लिए बेचैन अफ्रीकी और ऐशियाई महाद्वीपों के रचनाधर्मी थे।
इस दो दिवसीय परिसंवाद में रचनाकारों ने पीड़ित और उपेक्षित मानवता के घर कहे जा सकने वाले एशिया और अफ्रीकी महाद्वीपों के लोगों के जातीय प्रश्नों की गहन पड़ताल की और उनके हल ढूँढ़ने की कोशिश की। समकालीन मानव का तथाकथित ‘ग्लोबल फेस’ पूँजी और हथियारों की ताकत से दुनिया को एक-ध्रुवीय बना देने वाले मनुष्य का ही चेहरा है। एफ्रो-एशियाई लेखकों-कवियों की साॅलिडरिटी तथा भाषायी व सांस्कृतिक पहचान के प्रति उनका यह आग्रह नीमराणा सम्मेलन में साफ तौर पर उभर कर सामने आया।
इण्डोनेशिया, भूटान, नेपाल जैसे राष्ट्रों से आए प्रतिनिधि अपनी भाषा की वैश्विक पहचान के लिए प्रतिबद्ध दिखे। वे दो स्तरों पर संघर्षरत हैं- मंचों पर व्याख्यानों के जरिए तथा अपनी रचनाओं में अपनी भाषा, लोक व्यवहार और जीवन के मुहावरे की पुनस्र्थापना के माध्यम से। यही वजह है कि ‘‘शंकुतला: दि प्ले आव मेमोरी’’ शीर्षक से अंग्रेजी में लिखे गए अपने उपन्यास की लेखिका नमिता गोखले मंच से यह घोषित करती हैं कि जब उनका यह उपन्यास हिन्दी में छपकर आया तो भारतीय जीवन के प्रतीक और मुहावरे अंग्रेजी के बंधन से छूटकर अधिक स्वाभाविक और जीवंत हो गए।
और यही वजह है कि अपने पिता की पहचान में गोद ढँूढ़ने वाली, इंग्लैंड में जन्मी और पली-बढ़ी, जापान में विवाहित और अब सिंगापुर में रह रही ‘मीरा चंद’ अपने नाम की भारतीय ‘‘मीराँ’’ पहचान के लिए व्याकुल दिखी। वह हालांकि कोई भी भारतीय भाषा नहीं बोल पाती। उनकी माता स्विट्जरलैंड की तथा पिता भारतीय थे।
मेरी मेज पर अपनी ड्रिंक खत्म कर जापानी कवयित्री काजुको शिराइशी जब लड़खड़ाते कदमों से उठी तो धुंधले-से दिखते एक अफ्रीकी लेखक से मैंने रचना की आत्मा को अभिव्यक्त करने के लिए सिर्फ दो शब्दों के उच्चारण के लिए कहा। ‘‘प्यार और सिर्फ प्यार’’ अंधेरे कोने से भावपूर्ण आवाज आयी।

आठ
4 मार्च 2006, जयपुर
कैंडिल लाइट की बेचैन छायाएँ कमरे की दीवारों पर डोलती हैं.....गहरी, अटूट निस्तब्धता जिसमें दिल की धड़कन को साफ सुना जा सके....और मैं एकाएक उस जैविक आश्चर्य को सुनता हूँ....मेरे दाहिने अंगूठे और तर्जनी के सिरों पर दर्दभरी एक कराह है- रिसता हुआ कोई ताजा जख्म....मैं किसी अज्ञात आग्रह से बिंधा हुआ टेबिल पर उपेक्षित पड़ी उस कलम को खोलता हूँ और उसे अपनी पकड़ में कस लेता हूँ....और तब मुझे एकाएक पिछली रात याद हो आती है...इसी अंदाज में मैंने उसके हृदय को छुआ था....बाएँ स्तन के नीचे उफनता समुद्र....और तभी से यह अंगुलियाँ उसी दिल की तरह धड़क रही हैं.....जीवन विरोधी शक्तियों और निराशा को ललकारती हुई....हम जरूर लिखेंगे और जिएंगे....उर्वरा पृथ्वी और मनुष्यता के लिए....सूर्य की किरणों और पक्षियों की उड़ानों के लिए....जोगेश्वर के घने-घुमेर पीपल के लिए, उन सिक्कों के लिए जिन्हें हमने दुगने हो जाने की आस में मिट्टी के नीचे दबाया था और हमारे सपनों को झुठलाते हुए वे वर्षों बाद खोदने पर हमें नहीं मिले।....हम मनुष्यता के गले में शब्दों के ऐसे हार पहना देंगे जो सदियों तक उसके सुखों-दुःखों में महकते रहेंगे।....हम जरूर लिखेंगे और जियेंगे।

नौ
30 जुलाई 2006, जयपुर
वैष्णोदेवी तीर्थ की यात्रा से लौटे आज तीन दिन बीत चुके हैं। आज जाकर कहीं पाँवों की सूजन मिट सकी है। हिमालय के उस प्राकृतिक वैभव की गोद में दुबका आस्था का यह संगम सचमुच आश्चर्यचकित कर देने वाला है। हजारों लोग उस कठिन लेकिन मनोहारी पदयात्रा के बाद वैष्णोदेवी की गुफा तक पहुँचते हैं-अटूट आस्था और विश्वास की ऊर्जा से ओतप्रोत!
बादलों से घिरे गिरि-शिखरों और चीड़-वनों से आच्छादित विशाल घाटियों का पवित्र संयोजन हृदय को रोमांच से भर देता है। कई बार तो ऐसा भी होता है जब आप बादलों के बीच होते हैं और ठंडी फुहारें पहाड़ों की लंबी चढ़ाई से थके आपके शरीर को अचानक ताज़गी का स्पर्श देती हैं। आप उस पवित्र ठंडक को अपनी आत्मा में उतरता हुआ पाते हैं और बादलों की कोमल शुभ्रता में बाहें फैलाये चीड़ों की अदृश्य पत्तियों से पानी की बूँद आपके सर पर लगातार गिरती हैं....टप्-टप्! बारिश का यह जादुई संगीत आस्था के जयकारों के साथ मिलकर आपको ऊँचे और ऊँचे चढ़ते जाने की प्रेरणा देता है।
बिना प्रेरणा, बिना आशा के सृजनात्मक जीवन संभव नहीं। हरी-भरी घाटियों में विशाल नौकाओं की भाँति तैरते बादल आपकी आँखों में उन सपनों को फिर से जगा देते हैं जिन्हें बरसों पहले आप हृदय के उजाड़ में दफ्न कर चुके होते हैं।
यह हिमालय है....एक भौगोलिक सच्चाई के साथ-साथ इस महादेश की आध्यात्मिक ऊर्जा का महास्रोत! गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र जैसी अनेकानेक नदियों का उद्गम और विदेह साधू-संन्यासियों की तपोभूमि। सूरजभान चढ़ाई में मुझसे आगे है और बादलों के घूमर में मैं उसे एक धुंधली आकृति की तरह ही देख पाता हूँ। धड़धड़ाती टापों के साथ दो-तीन घोड़े कुछ अंग्रेज युवतियों को लिए मेरी बग़ल से गुजरते हैं। पीछे छाये घने कुहासे से एक वृद्ध की पालकी मजबूत कद-काठी के पहाड़ी कहारों के कंधों पर प्रकट होती है। फिर युवक-युवतियों का एक उत्साही दल पसीने में तरबतर...हाय-हैल्लो छोड़ो! जय माता दी बोलो!!
चीड़ की शाखाओं से लगातार बारिश की बूंदें टपक रही हैं......टप्-टप्-टप्.....
रास्ते के किनारे लगी घुमावदार रेलिंग का सहारा लेकर मैं नीचे, घाटी में झाँकता हूँ- जंगल के अपार सौंदर्य से लदी कोसों गहरी ढलानें जहाँ से आँखें हटाने का मन नहीं करता। धूप के उजास में चमकती कटरा शहर की आपस में सटी छतें और आकाश में खिंचे सफेद बादलों से होड़ लेती झेलम की दूर-दूर तक फैली धाराएं! एक घुमाव ऊपर तक पहुँच चुका सूरजभान हाथ के इशारे से मुझे ऊपर बुला रहा है जहाँ एक छोटी-सी गुमटी पर कोल्ड ड्रिंक्स की बोतलें सजी रखी हैं।

दस
15 जुलाई 2014, गूँती
सृजन!
एक दुनिया जो ईश्वर की बनायी कायनात से अलग हो। खुद अपनी बनाई हुई एक दुनिया!
जो प्राकृतिक दुनिया हमें अपने आस-पास दिखाई देती है, वह ईश्वर की बनाई हुई है.....पेड़-पौधे, समुद्र, आकाश, फूलों के दरीचे!
जब मैं लिखता हूँ- उन फूलों को, उन आँसुओं को, उस दुस्साहस को, उस रेगिस्तान को और आकाश के उस सुरमई चेहरे को.....तो जैसे मैं ईश्वर की बनाई हुई दुनिया को पाठकों के लिए फिर से सृजित करता हूँ...एक पाठक को अक्षरों की नोक से झिंझोड़ता हूँ...तुमने देखा उस लड़खड़ाते भिखारी का दुःख या उस किशोरी की हँसी का पवित्र उल्लास या आँसुओं में बहकर आते उस समुद्र का खारापन या फिर कठफोड़वा के कर्मशील जीवन की उस ठक्-ठक् को ही ध्यान से सुना तुमने या तुमने अपने दिल को ही बजाया किसी एकांत क्षण में परमात्मा के दिए साज की तरह.....तो इस तरह मैं एक पाठक के लिए उसके बोध और इन्द्रिय से महसूस की जा रही दुनिया को ही एक बार फिर उसके लिए अपनी लेखकीय दृष्टि और भावना के साथ सृजित करता हूँ।.....इसके लिए मुझे कनखजूरे के पाँवों की जटिल श्रृंखला को या एक ऊँट के व्यवहार को बहुत ध्यान से देखना-परखना पड़ता है ताकि सृजित किए गए विषय का कोई पक्ष छूट नहीं जाये।
कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि चैड़े मुँह वाला टिग्रीना मेढ़क यदि लिखता तो वह अपनी प्रजाति के पाठकों के लिए क्या लिखता! उसके अनुभव तो जलीय जीवन के बहुत विस्तृत अनुभव होते। एक पेंटिंग में वह रंगों की ऐसी व्यवस्था करता जो जल-रंगों के साथ जिंदगी भर काम करने वाले हमारे किसी कलाकार से भिन्न होते!
यह भी सच है कि शब्दों के जरिए भावाभिव्यक्ति में मैं कभी-कभी एक बंधन-सा महसूस करता हूँ। किसी नर्तक के शरीर पर जैसे लबादा पड़ा हो और अंग-संचालन में वह खुद को बाधित महसूस कर रहा हो।
मैं इस बात को थोड़ा और खोलना चाहूँगा। कई बार गाँव के अपने खेतों में पक्षियों द्वारा बनाए गए चकित कर देने वाले घोंसलों को मैं देखता हूँ। उन घोंसलों में भी उन पक्षियों की उद्दाम भावनाएँ और एक सामाजिक संदेश निहित होता है। नीड़ निर्माण में निहित उस संदेश को संप्रेषित करने के लिए काग़ज खराब करने की जरूरत नहीं पड़ी। एक पक्षी ने अपने दिल के भावों को, अपनी सुंदर अभिव्यक्ति को, बिना शब्दों और कलम का सहारा लिए दूसरों तक पहुँचा दिया।
गरज कि हर माध्यम की अपनी सीमा होती है। इसीलिए तो ईश्वर हमें चकित कर देता है-विधाओं की इस सीमा को तोड़कर। जल को ही लीजिए। धरती पर उसने झरना बनाया। अब कोई यदि अंधा है तो झरने की कल-कल को सुन सकता है। अंधा व बहरा दोनों है तो उन ठंडी फुहारों के स्पर्श को तो महसूस कर ही सकता है और यदि कोई बूँद उछलकर उसकी जीभ पर आ गिरे तो.....तरलता की पूर्ण तृप्ति!
झरने के साथ कान, नाक, त्वचा, आँखें, जीभ, सबके सब आनंद में डूब जाते हैं। लेकिन जब कोई लेखक उस झरने को लेकर लिखता है तो ईश्वर की सत्ता से अलहदा उसे अपना एक अलग झरना बनाना होता है। यह है उसका पुनर्सृजन! जब आप उस झरने को पढ़ रहे होते हैं तो उसमें आप उस लेखक की उपस्थिति को महसूस कर सकते हैं। इसलिए निव्र्ययक्तिक कला कुछ नहीं होती-कला से आप कलाकार के व्यक्तित्व को हटा नहीं सकते। झरने के उल्लास को अंजुरी में भरकर वही तो पुस्तकों की आलमारी या कलादीर्घा तक लाता है। अब यह उसकी क्षमता पर निर्भर है कि वह कितना जल अंजुरी में लेकर आया है या समूचा झरना ही.....कितना उल्लास, कितनी कलकल, कितनी उदासी, कितनी हरियाली, कितना व्यामोह और कितना आश्चर्य!
उस झरने को हरफों में उठाने के लिए जब उसने अंजुरी बनाई तो कितनी विविध भावनाओं और रंगों में उसे रंगा। क्या वह अपनी प्यास बुझाने के लिए झुके उस वनमानुष की व्याकुल प्रतिच्छाया को अपनी अंजुरी में भरकर ला सका? और इतना ही क्यों, क्या वह झरने की बगल में उगे झुरमुट में चहचहाती नन्ही गोरैया की उस उमंग को ला सका, और उस केकड़े की तात्कालिक आपदा का राज भी, जो खिली धूप को सेंकने के लिए पानी से बाहर आना तो चाहता था लेकिन पत्थर की नोंक पर पाँव जमाकर बैठे शत्रु की उपस्थिति के कारण ऐसा नहीं कर सका!
गरज कि आप ईश्वर के बनाए झरने को तो बिना खंडित किए लाएँ ही साथ ही अपनी कला-सामथ्र्य के द्वारा उसमें अपने निजी रंग और संगीत भी घोल दें।
सृजन पर अधिक समीक्षात्मक चीर-फाड़ किए बिना इसका रहस्य भी बना रहने देना चाहिए। ईश्वर, मृत्यु और जीवात्मा के तमाम रहस्य जिस दिन खुल जायेंगे तो सभी जानकारियाँ इस व्यावसायिक युग में शीघ्र ही उत्पादों में बदल दी जायेंगी और सृजन के दिव्यत्व, उसके अज्ञेय का लोप हो जायेगा।

रामानंद राठी
चार दशक से साहित्य में सक्रिय रामानंद राठी ने कहानी ,रिपोर्ताज ,शब्द चित्र, नाटक समेत साहित्य की लगभग सभी विधाओं में खुद को अभिव्यक्त किया है । 'गूंती का अंतिम पठान'  समेत दो कहानी संग्रह, इतिहास एवं संस्कृति केंद्रित 'राठ 'तथा 'गूंती गाथा '( स्मृति चित्र ) प्रकाशित । वर्तमान में राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी की पत्रिका 'हिंदी बुनियाद' के संपादक ।
मोबाइल - 9829258006

टिप्पणियाँ

  1. सभी प्रविष्टियों में एक विरल आत्मीय अनुराग झलकता-छलकता है। परिवेश ही पात्र के रूप में, पात्रों से भी अधिक *पात्रता* के साथ, उभरकर सामने खड़ा हो जाता है। सहजता और पूरी रागात्मकता के साथ मुखरित होने वाली आत्मीयता मेरे तईं इन डायरी प्रविष्टियों को मूल्यवान बनाती है। भाई रामानंद राठी को भरपूर मुबारकबाद!

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  2. रामानन्द राठी अब ख़लीफ़ा हैं । डॉ मनु शर्मा की खोज उपलब्धि । पुराना राग है और नयी जुगलबन्दी । राठी का हर वाक्य पढ़ने लायक होता है और यह कोई मामूली बात नहीं । मनु, राठी, राजाराम, नितिन और मीमांसा को इस डायरी प्रकाशन के लिए साधुवाद ।

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  3. रामानन्द राठी अब ख़लीफ़ा हैं । डॉ मनु शर्मा की खोज उपलब्धि । पुराना राग है और नयी जुगलबन्दी । राठी का हर वाक्य पढ़ने लायक होता है और यह कोई मामूली बात नहीं । मनु, राठी, राजाराम, नितिन और मीमांसा को इस डायरी प्रकाशन के लिए साधुवाद ।

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  4. रामानन्द राठी अब ख़लीफ़ा हैं । डॉ मनु शर्मा की खोज उपलब्धि । पुराना राग है और नयी जुगलबन्दी । राठी का हर वाक्य पढ़ने लायक होता है और यह कोई मामूली बात नहीं । मनु, राठी, राजाराम, नितिन और मीमांसा को इस डायरी प्रकाशन के लिए साधुवाद ।

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उत्तर-आधुनिकता और जाक देरिदा जाक देरिदा को एक तरह से उत्तर- आधुनिकता का सूत्रधार चिंतक माना जाता है। उत्तर- आधुनिकता कही जाने वाली विचार- सरणी को देरिदा ने अपने चिंतन और युगान्तरकारी उद्बोधनों से एक निश्चित पहचान और विशिष्टता प्रदान की थी। आधुनिकता के उत्तर- काल की समस्यामूलक विशेषताएं तो ठोस और मूर्त्त थीं, जैसे- भूमंडलीकरण और खुली अर्थव्यवस्था, उच्च तकनीकी और मीडिया का अभूतपूर्व प्रसार। लेकिन चिंतन और संस्कृति पर उन व्यापक परिवर्तनों के छाया- प्रभावों का संधान तथा विश्लेषण इतना आसान नहीं था, यद्यपि कई. चिंतक और अध्येता इस प्रक्रिया में सन्नद्ध थे। जाक देरिदा ने इस उपक्रम को एक तार्किक परिणति तक पहुंचाया जिसे विचार की दुनिया में उत्तर- आधुनिकता के नाम से परिभाषित किया गया। आज उत्तर- आधुनिकता के पद से ही अभिभूत हो जाने वाले बुद्धिजीवी और रचनाकारों की लंबी कतार है तो इस विचारणा को ही खारिज करने वालों और उत्तर- आधुनिकता के नाम पर दी जाने वाली स्थापनाओं पर प्रत्याक्रमण करने वालों की भी कमी नहीं है। बेशक, उत्तर- आधुनिकता के नाम पर काफी कूडा- कचरा भी है किन्तु इस विचार- सरणी से गुजरना हरेक

कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी

स्मृति-शेष हिंदी के विलक्षण कवि, प्रगतिशील विचारों के संवाहक, गहन अध्येता एवं विचारक तारा प्रकाश जोशी का जाना इस भयावह समय में साहित्य एवं समाज में एक गहरी  रिक्तता छोड़ गया है । एक गहरी आत्मीय ऊर्जा से सबका स्वागत करने वाले तारा प्रकाश जोशी पारंपरिक सांस्कृतिक विरासत एवं आधुनिकता दोनों के प्रति सहृदय थे । उनसे जुड़ी स्मृतियाँ एवं यादें साझा कर रहे हैं -हेतु भारद्वाज ,लोकेश कुमार सिंह साहिल , कृष्ण कल्पित एवं ईशमधु तलवार । कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी                                           हेतु भारद्वाज   स्व० तारा प्रकाश जोशी के महाप्रयाण का समाचार सोशल मीडिया पर मिला। मन कुछ अजीब सा हो गया। यही समाचार देने के लिए अजमेर से डॉ हरप्रकाश गौड़ का फोन आया। डॉ बीना शर्मा ने भी बात की- पर दोनों से वार्तालाप अत्यंत संक्षिप्त  रहा। दूसरे दिन डॉ गौड़ का फिर फोन आया तो उन्होंने कहा, कल आपका स्वर बड़ा अटपटा सा लगा। हम लोग समझ गए कि जोशी जी के जाने के समाचार से आप कुछ असहज है, इसलिए ज्यादा बातें नहीं की। पोते-पोती ने भी पूछा 'बावा परेशान क्यों हैं?' मैं उन्हें क्या उत्तर देता।  उनसे म

जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ

परिप्रेक्ष्य जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ                                                               ■  राजाराम भादू जाति का उच्छेद ( Annihilation of Caste )  डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर की ऐसी पुस्तक है जिसमें भारतीय जाति- व्यवस्था की प्रकृति और संरचना को पहली बार ठोस रूप में विश्लेषित किया गया है। डॉ॰ अम्बेडकर जाति- व्यवस्था के उन्मूलन को मोक्ष पाने के सदृश मुश्किल मानते हैं। बहुसंख्यक लोगों की अधीनस्थता बनाये रखने के लिए इसे श्रेणी- भेद की तरह देखते हुए वे हिन्दू समाज की पुनर्रचना की आवश्यकता अनुभव करते हैं। पार्थक्य से पहचान मानने वाले इस समाज ने आदिवासियों को भी अलगाया हुआ है। वंचितों के सम्बलन और सकारात्मक कार्रवाहियों को प्रस्तावित करते हुए भी डॉ॰ अम्बेडकर जाति के विच्छेद को लेकर ज्यादा आश्वस्त नहीं है। डॉ॰ अम्बेडकर मानते हैं कि जाति- उन्मूलन एक वैचारिक संघर्ष भी है, इसी संदर्भ में इस प्रसिद्ध लेख का पुनर्पाठ कर रहे हैं- राजाराम भादू। जाति एक नितान्त भारतीय परिघटना है। मनुष्य समुदाय के विशेष रूप दुनिया भर में पाये जाते हैं और उनमें आंतरिक व पारस्परिक विषमताएं भी पायी जाती हैं लेकिन ह

भूलन कांदा : न्याय की स्थगित तत्व- मीमांसा

वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है। भूलन कांदा  को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी  की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्ता- संरचना

सबाल्टर्न स्टडीज - दिलीप सीमियन

दिलीप सीमियन श्रम-इतिहास पर काम करते रहे हैं। इनकी पुस्तक ‘दि पॉलिटिक्स ऑफ लेबर अंडर लेट कॉलोनियलिज्म’ महत्वपूर्ण मानी जाती है। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया है और सूरत के सेन्टर फोर सोशल स्टडीज एवं नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में फैलो रहे हैं। दिलीप सीमियन ने अपने कई लेखों में हिंसा की मानसिकता को विश्लेषित करते हुए शांति का पक्ष-पोषण किया है। वे अमन ट्रस्ट के संस्थापकों में हैं। हाल इनकी पुस्तक ‘रिवोल्यूशन हाइवे’ प्रकाशित हुई है। भारत में समकालीन इतिहास लेखन में एक धारा ऐसी है जिसकी प्रेरणाएं 1970 के माओवादी मार्क्सवादी आन्दोलन और इतिहास लेखन में भारतीय राष्ट्रवादी विमर्श में अन्तर्निहित पूर्वाग्रहों की आलोचना पर आधारित हैं। 1983 में सबाल्टर्न अध्ययन का पहला संकलन आने के बाद से अब तब इसके संकलित आलेखों के दस खण्ड आ चुके हैं जिनमें इस धारा का महत्वपूर्ण काम शामिल है। छठे खंड से इसमें संपादकीय भी आने लगा। इस समूह के इतिहासकारों की जो पाठ्यवस्तु इन संकलनों में शामिल है उन्हें ‘सबाल्टर्न’ दृष्टि के उदाहरणों के रुप में देखा जा सकता है। इस इतिहास लेखन धारा की शुरुआत बंगाल के

कथौड़ी समुदाय- सुचेता सिंह

शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म

दस कहानियाँ-१ : अज्ञेय

दस कहानियाँ १ : अज्ञेय- हीली- बोन् की बत्तखें                                                     राजाराम भादू                      1. अज्ञेय जी ने साहित्य की कई विधाओं में विपुल लेखन किया है। ऐसा भी सुनने में आया कि वे एक से अधिक बार साहित्य के नोवेल के लिए भी नामांकित हुए। वे हिन्दी साहित्य में दशकों तक चर्चा में रहे हालांकि उन्हें लेकर होने वाली ज्यादातर चर्चाएँ गैर- रचनात्मक होती थीं। उनकी मुख्य छवि एक कवि की रही है। उसके बाद उपन्यास और उनके विचार, लेकिन उनकी कहानियाँ पता नहीं कब नेपथ्य में चली गयीं। वर्षों पहले उनकी संपूर्ण कहानियाँ दो खंडों में आयीं थीं। अब तो ये उनकी रचनावली का हिस्सा होंगी। कहना यह है कि इतनी कहानियाँ लिखने के बावजूद उनके कथाकार पक्ष पर बहुत गंभीर विमर्श नहीं मिलता । अज्ञेय की कहानियों में भी ज्यादा बात रोज पर ही होती है जिसे पहले ग्रेंग्रीन के शीर्षक से भी जाना गया है। इसके अलावा कोठरी की बात, पठार का धीरज या फिर पुलिस की सीटी को याद कर लिया जाता है। जबकि मैं ने उनकी कहानी- हीली बोन् की बत्तखें- की बात करते किसी को नहीं सुना। मुझे यह हिन्दी की ऐसी महत्वपूर्ण

समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान-1

रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक जयपुर में हो रहा है ,जबकि दुनिया में नाटक कहीं से कहीं पहुँच चुका है |” उनकी चिंता वाजिब थी क्योंकि राजस्थान

वंचना की दुश्चक्र गाथा

  मराठी के ख्यात लेखक जयवंत दलवी का एक प्रसिद्ध उपन्यास है जो हिन्दी में घुन लगी बस्तियाँ शीर्षक से अनूदित होकर आया था। अभी मुझे इसके अनुवादक का नाम याद नहीं आ रहा लेकिन मुम्बई की झुग्गी बस्तियों की पृष्ठभूमि पर आधारित कथा के बंबइया हिन्दी के संवाद अभी भी भूले नहीं है। बाद में रवीन्द्र धर्मराज ने इस पर फिल्म बनायी- चक्र, जो तमाम अवार्ड पाने के बावजूद चर्चा में स्मिता पाटिल के स्नान दृश्य को लेकर ही रही। बाजारू मीडिया ने फिल्म द्वारा उठाये एक ज्वलंत मुद्दे को नेपथ्य में धकेल दिया। पता नहीं क्यों मुझे उस फिल्म की तुलना में उपन्यास ही बेहतर लगता रहा है। तभी से मैं हिन्दी में शहरी झुग्गी बस्तियों पर आधारित लेखन की टोह में रहा हूं। किन्तु पहले तो ज्यादा कुछ मिला नहीं और मुझे जो मिला, वह अन्तर्वस्तु व ट्रीटमेंट दोनों के स्तर पर काफी सतही और नकली लगा है। ऐसी चली आ रही निराशा में रजनी मोरवाल के उपन्यास गली हसनपुरा ने गहरी आश्वस्ति दी है। यद्यपि कथानक तो तलछट के जीवन यथार्थ के अनुरूप त्रासद होना ही था। आंकड़ों में न जाकर मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि भारत में शहरी गरीबी एक वृहद और विकराल समस्य

फ्लैशबैक

फ्लैशबैक -१ जब सभी अतीत स्मृतियों में जा रहे हैं तो कुछ क्षण मुझे भी जाने की इजाजत दें। हमारे संगठन में एक कर्मठ ट्रेड यूनियन नेता, लेखक और लोकशासन पाक्षिक के संपादक बी. पी. सारस्वत हुआ करते थे जिन्हें आदर से सब लोग चाचा कहा करते थे। उन पर विस्तार से कभी आगे लिखूंगा। अभी तो अपने बारे में उनके कुछ उद्गार- राजाराम भादू अनजाने में एक ऐसा नाम. उभर कर सामने आया है जिसे अब सभी तरफ जाना जाने लगा है। इस नवयुवक साहित्यकार में प्रतिभा है। निरंतर चिंतन से विकसित ऊर्जा और कठिन परिश्रम के बलबूते यह रचना- कर्मी अपने सापेक्ष हस्तक्षेप से अपना स्थान बनाने में सफलता से अग्रसर है। युवा आलोचक के रूप में जहां राजाराम भादू स्पष्ट रूप से उभर कर प्रतिष्ठा पा चुके हैं, वहींं दिशाबोध साहित्यिक पाक्षिक के माध्यम से उन्होंने अपनी विकसित दृष्टि का परिचय दिया है। कविता, कहानी, आलेख से लेकर अनुवाद के क्षेत्र में उनका दखल है। साहित्य के अलावा सिनेमा, रंगमंच और अन्य कलाओं के अध्ययन में उनकी गहरी रुचि और जन- संस्कृति की अच्छी पकड के कारण उनका दायरा व्यापक हुआ है। राजाराम भादू की सहज संवेदनशीलता के पीछे उनकी ग्राम्य जी