सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

मेघा मित्तल की कविताएँ

संभावना
मेघा मित्तल की कविताएँ बेशक अनगढ हैं लेकिन ये अपने स्वत:स्फूर्त उद्वेग और भीतरी ऊर्जा से आश्वस्त करती हैं। वे स्वयं को, दूसरों को और चीजों को निस्पृह भाव और आलोचनात्मक ढंग से देखती हैं। छात्र- युवा आन्दोलनों से संलग्नता ने उनमें अभिव्यक्ति के लिए खास तरह की बैचेनी पैदा की है जिसे व्यक्त करने के लिए वे अपनी शैली तलाश रही हैं ।

 बातें
इन महानगरों की सड़कों पर चलते हुए
हम अक्सर बातें करते हैं

“अरे! यह गाड़ी कितनी सुंदर है,
इस गाड़ी का रंग अच्छा है,
कुछ साल बाद हम यह गाड़ी खरीदेंगे,
नहीं, यह गाड़ी बड़ी नहीं है,
इस बाईक को कैसे चलाते हैं,
हमारी बाईक भी बढ़िया चलती है,”

अगर यही सफर हम किसी गांव की
कच्ची मिट्टी भरे रास्ते पर करते 
तो शायद बातें कुछ ऐसी होती 

“देखो, यह पेड़ कितना सुंदर है,
अरे, यहां आम आ गए,
रघु चाचा खेत में कितनी मेहनत कर रहें हैं,
हां, चलो पोखर चलते हैं,
कुछ ही दूर पर पक्की सड़क है,
वो काकी आज दिन में ही घर लौट रही है”

 कहानी- सी हूं !

मैं एक कहानी सी हूँ
जो किसी ने दो पंक्तियों में पढ़ दी,
और कोई किताबें ढूंढ़ता है,
लिखने के लिए।

मैं एक कहानी सी हूँ
जो किसी को लगी आसान बहुत
और कोई तरीके ढूंढ़ता है,
समझने के लिए।

मैं एक कहानी सी हूँ
जो किसी ने पानी से मिटायी
और कोई रंग ढूंढ़ता है,
सजाने के लिए।

मैं एक कहानी सी हूँ
जो किसी ने दुनिया को सुनायी
और कोई मुझे ही ढूंढ़ता है,
सुनाने के लिए।

 सुनो !

 सुनो!
तुम सिगरेट पीना छोड़ दो
तुम्हारे नथनों और होंठों से
निकलता धुंआ देख मुझे खौफ़ आता है
ख़ौफ़ कि कहीं किसी दिन मुझे भी
अपनी दो उंगलिओं के बीच पकड़कर, 
होठों में दबाकर 
लाइटर से आग न लगा दो 
और कश दर कश मुझे धुएं में न उड़ा दो

मैं सुलग जाऊंगी
तुम हर कश के साथ मेरे वजूद को 
मिटाते चले जाओगे
मैं धीरे धीरे जलती जाऊंगी
और बुझती जाऊंगी
और राख होकर तुम्हारे ही कदमों में गिरती जाऊंगी
तुम मेरे एक एक हिस्से को राख होने के बाद
झटककर जमीन पर गिराते जाओगे

पहलों पहल मेरे गेसुओं में आग लगेगी
जो जंगल में चिंगारी की तरह फैलती जाएगी
तुम जैसे ही पहला कश लोगे 
तो मेरी रोती हुई आंखों से न सिर्फ आंसू सूखेंगें
वो आंखें भी जल जाएंगी
और अभी तो मैं तुम्हें बोल कर 
रस्में, वो कसमें याद दिला ही रही होंगी
की अगला काश छीन लेगा मुझसे
मेरी आवाज और अल्फ़ाज़
इसी तरह तुम फिर मेरे कन्धे
मेरी छाती, मेरी नसें सब जला दोगे
और जब मेरे दिल का कश भरने लगोगे न 
तो थोड़ी धसक सी होगी
थोड़ी जलन सी होगी
अब ये जो इतना दर्द मुझे देने के बाद हल्का सा तुम्हें होगा
उसके बाद तुम बुझा कर फेंक दोगे 
मेरे पैरों के हिस्से को
तुम्हें लगेगा कि मैं इनसे दोबारा अपने पैरों पर खड़ी हो जाऊंगी
मगर नहीं
मैं कुचली जाऊंगी 
पहले तुमसे 
फिर आने जाने वाले न जाने कितने राहगीरों से

सुनो! 
इसलिए मैं कहती हूं कि तुम सिगरेट पीना छोड़ दो
तुम्हारे नथनों से और होंठों से 
निकलता धुंआ देख मुझे ख़ौफ़ आता है 
की कहीं किसी दिन मुझे भी तुम 
राख न बना दो
वो राख जिसे तुम पछतावा होने पर 
समेट कर
मेरी अस्थियों का कलश भी न बना पाओगे
जिसे तुम गंगा में बहा दो
मैं मौसम में धुंआ बनकर तुम्हारे इर्द गिर्द तो होंगी
मगर मुझे चूमकर, मुझपे हाथ रखकर तुम यह नहीं
कह पाओगे कि हां, हवा का यह कण मेरा है
मुझे अपने आगोश में भरकर
मेरे माथे को चूमकर
तुम ये न कह पाओगे 
की मैं तुम्हारे दिल में बस्ती हूं
सुनो,
इसीलिए मैं कहती हूं
कि तुम सिगरेट पीना छोड़ दो

स्त्रियाँ बनाम स्त्रियाँ

 सभी स्त्रियां नहीं होती 
एक दूसरे की सहेलियां
जैसे सभी पुरुष होते हैं 
एक दूसरे के यार

मां बनी स्त्री सिखाती है
बेटी बन आई स्त्री को  
झाडू, बर्तन, सिलाई 
और घर परिवार की चुगलियां
चुप रहना, मार सहना
घर में रहना
और
पति को ईश्वर कहना
वो नहीं बताती उसे
सेक्स की आजादी,
बराबरी का अधिकार,
खुद का कारोबार।
मां बनी स्त्री 
बेटी बन आई स्त्री को 
नहीं बनाती 
आत्मनिर्भर।

सास बनी स्त्री 
देती है 
बहू बनी स्त्री को ताने
कसती है फब्तियां
निकालती है खामियां
वो नहीं सिखा पाती उसे 
स्त्री होने से पहले
इंसान होना।
वो नहीं दे पाती उसे
वो आजादी 
जो वो खुद अपने लिए चाहती थी
जब बहू बनी थी वो
सास बनी स्त्री 
बहू होना भूल जाती है
और सास बन 
वही सब करती है
जो उसने देखा था 
अपनी सास को करते हुए।

बेटी बनी कुछ स्त्रियां
बुनती तो हैं सपने
चाहती हैं वो उड़ना 
निकलना स्त्रियों के जंजाल से
बदलना स्त्रियों के व्यवहार को
वो चाहती हैं
पढ़ाई कर स्त्री से
कुछ ज्यादा होना

कुछ स्त्रियां बन जाती हैं
डॉक्टर, मिनिस्टर, साईंटिस्ट
और कुछ बनी रह जाती हैं केवल
बहू,
मां,
सास।

स्त्री, संभालते हुए
समाज के नियमों को
खुद को खत्म कर देती हैं,
एक दूसरे के खिलाफ 
खड़े होकर।

आजादी का गीत

खुले आसमान को देखती हूं
तो एक ही शब्द
दिमाग़ में आता है
"आज़ादी"
किसको? किससे?
मालूम नहीं
शायद जो मजदूर है
उसकी मजदूरी से आज़ादी
ग़रीब को गरीबी से आज़ादी
अमीर को दिखावे से आज़ादी
जो उड़ सकता है
उसको चलने की आज़ादी
जो चल रहा है
उसे दौड़ने की आज़ादी
जो चुप है, उसे बोलने की आज़ादी
बोलने वाले को, अपने मन का
बोलने की आज़ादी
जो पेड़ है, उसे पेड़ न बने रहने की आज़ादी
ज़मीन को नदी
और
नदी को ज़मीन हो जाने की आज़ादी
जो कैद है, उसे रिहा होने की आज़ादी
जो भटक रहा है, उसे घर आने की आज़ादी
जो आदेश दे रहा है
उन्हें न मानने की आज़ादी
मिट्टी में लेट कर बच्चा हो जाने की आज़ादी
जो किसी के इंतज़ार में है
उसे मिल आने की आज़ादी
जो सपने बुन रहा है
उसे आसमान छूने की आज़ादी
नौकरी पर जाते जाते
न जाने की आज़ादी
भागकर पुराने दोस्तों से
गले मिल आने की आज़ादी
पेट भरने के लिए दिन रात की घिसन से आज़ादी
किसी सुबह में चादर तान कर
सोने की आज़ादी
किसी ओर का बोझ
अपने कंधे पर न ढोने की आज़ादी
अपने ख्यालों को खुल के बताने की 
आज़ादी
जो नामुमकिन सी है
उन्हीं बातों को कर दिखाने की आज़ादी
अपने दुखों को भूल जाने की आज़ादी
डर के पार जाने की आज़ादी
अपनी बात रखी जाने की आज़ादी
कही बात सुने जाने की आज़ादी
एक आज़ाद मुल्क से
भाग जाने की आज़ादी
दूर कहीं एक नया मुल्क
बसाने की आज़ादी
"आज़ादी"
आज़ादी के नाम पर
बहता खून रोकने की आज़ादी
और मुझे कहीं भी
यह कविता ख़तम कर देने की आज़ादी।

मेघा मित्तल
हरियाणा के रोहतक में रहने वाली मेघा मित्तल ने दिल्ली विश्वविद्यालय के दिल्ली कालेज आफ आर्ट्स एंड कामर्स से पत्रकारिता की पढाई की है। छात्र- युवा संघर्षों में सक्रियता के साथ उन्वान सांस्कृतिक समूह बनाया जिसने  फेसबुक पर अपने लाइव कार्यक्रमों की श्रृंखला से अलहदा पहचान कायम की है। इसी के साथ मेघा आकाशवाणी और दूरदर्शन के लिए कापी-राइटिंग व एंकरिंग करती रही हैं। वे हिन्दी के साथ अंग्रेजी में भी कविताएँ लिखती हैं।
संपर्क : (M) 8221870341
Email : meghamittal666@gmail.com

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उत्तर-आधुनिकता और जाक देरिदा

उत्तर-आधुनिकता और जाक देरिदा जाक देरिदा को एक तरह से उत्तर- आधुनिकता का सूत्रधार चिंतक माना जाता है। उत्तर- आधुनिकता कही जाने वाली विचार- सरणी को देरिदा ने अपने चिंतन और युगान्तरकारी उद्बोधनों से एक निश्चित पहचान और विशिष्टता प्रदान की थी। आधुनिकता के उत्तर- काल की समस्यामूलक विशेषताएं तो ठोस और मूर्त्त थीं, जैसे- भूमंडलीकरण और खुली अर्थव्यवस्था, उच्च तकनीकी और मीडिया का अभूतपूर्व प्रसार। लेकिन चिंतन और संस्कृति पर उन व्यापक परिवर्तनों के छाया- प्रभावों का संधान तथा विश्लेषण इतना आसान नहीं था, यद्यपि कई. चिंतक और अध्येता इस प्रक्रिया में सन्नद्ध थे। जाक देरिदा ने इस उपक्रम को एक तार्किक परिणति तक पहुंचाया जिसे विचार की दुनिया में उत्तर- आधुनिकता के नाम से परिभाषित किया गया। आज उत्तर- आधुनिकता के पद से ही अभिभूत हो जाने वाले बुद्धिजीवी और रचनाकारों की लंबी कतार है तो इस विचारणा को ही खारिज करने वालों और उत्तर- आधुनिकता के नाम पर दी जाने वाली स्थापनाओं पर प्रत्याक्रमण करने वालों की भी कमी नहीं है। बेशक, उत्तर- आधुनिकता के नाम पर काफी कूडा- कचरा भी है किन्तु इस विचार- सरणी से गुजरना हरेक

कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी

स्मृति-शेष हिंदी के विलक्षण कवि, प्रगतिशील विचारों के संवाहक, गहन अध्येता एवं विचारक तारा प्रकाश जोशी का जाना इस भयावह समय में साहित्य एवं समाज में एक गहरी  रिक्तता छोड़ गया है । एक गहरी आत्मीय ऊर्जा से सबका स्वागत करने वाले तारा प्रकाश जोशी पारंपरिक सांस्कृतिक विरासत एवं आधुनिकता दोनों के प्रति सहृदय थे । उनसे जुड़ी स्मृतियाँ एवं यादें साझा कर रहे हैं -हेतु भारद्वाज ,लोकेश कुमार सिंह साहिल , कृष्ण कल्पित एवं ईशमधु तलवार । कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी                                           हेतु भारद्वाज   स्व० तारा प्रकाश जोशी के महाप्रयाण का समाचार सोशल मीडिया पर मिला। मन कुछ अजीब सा हो गया। यही समाचार देने के लिए अजमेर से डॉ हरप्रकाश गौड़ का फोन आया। डॉ बीना शर्मा ने भी बात की- पर दोनों से वार्तालाप अत्यंत संक्षिप्त  रहा। दूसरे दिन डॉ गौड़ का फिर फोन आया तो उन्होंने कहा, कल आपका स्वर बड़ा अटपटा सा लगा। हम लोग समझ गए कि जोशी जी के जाने के समाचार से आप कुछ असहज है, इसलिए ज्यादा बातें नहीं की। पोते-पोती ने भी पूछा 'बावा परेशान क्यों हैं?' मैं उन्हें क्या उत्तर देता।  उनसे म

जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ

परिप्रेक्ष्य जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ                                                               ■  राजाराम भादू जाति का उच्छेद ( Annihilation of Caste )  डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर की ऐसी पुस्तक है जिसमें भारतीय जाति- व्यवस्था की प्रकृति और संरचना को पहली बार ठोस रूप में विश्लेषित किया गया है। डॉ॰ अम्बेडकर जाति- व्यवस्था के उन्मूलन को मोक्ष पाने के सदृश मुश्किल मानते हैं। बहुसंख्यक लोगों की अधीनस्थता बनाये रखने के लिए इसे श्रेणी- भेद की तरह देखते हुए वे हिन्दू समाज की पुनर्रचना की आवश्यकता अनुभव करते हैं। पार्थक्य से पहचान मानने वाले इस समाज ने आदिवासियों को भी अलगाया हुआ है। वंचितों के सम्बलन और सकारात्मक कार्रवाहियों को प्रस्तावित करते हुए भी डॉ॰ अम्बेडकर जाति के विच्छेद को लेकर ज्यादा आश्वस्त नहीं है। डॉ॰ अम्बेडकर मानते हैं कि जाति- उन्मूलन एक वैचारिक संघर्ष भी है, इसी संदर्भ में इस प्रसिद्ध लेख का पुनर्पाठ कर रहे हैं- राजाराम भादू। जाति एक नितान्त भारतीय परिघटना है। मनुष्य समुदाय के विशेष रूप दुनिया भर में पाये जाते हैं और उनमें आंतरिक व पारस्परिक विषमताएं भी पायी जाती हैं लेकिन ह

सबाल्टर्न स्टडीज - दिलीप सीमियन

दिलीप सीमियन श्रम-इतिहास पर काम करते रहे हैं। इनकी पुस्तक ‘दि पॉलिटिक्स ऑफ लेबर अंडर लेट कॉलोनियलिज्म’ महत्वपूर्ण मानी जाती है। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया है और सूरत के सेन्टर फोर सोशल स्टडीज एवं नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में फैलो रहे हैं। दिलीप सीमियन ने अपने कई लेखों में हिंसा की मानसिकता को विश्लेषित करते हुए शांति का पक्ष-पोषण किया है। वे अमन ट्रस्ट के संस्थापकों में हैं। हाल इनकी पुस्तक ‘रिवोल्यूशन हाइवे’ प्रकाशित हुई है। भारत में समकालीन इतिहास लेखन में एक धारा ऐसी है जिसकी प्रेरणाएं 1970 के माओवादी मार्क्सवादी आन्दोलन और इतिहास लेखन में भारतीय राष्ट्रवादी विमर्श में अन्तर्निहित पूर्वाग्रहों की आलोचना पर आधारित हैं। 1983 में सबाल्टर्न अध्ययन का पहला संकलन आने के बाद से अब तब इसके संकलित आलेखों के दस खण्ड आ चुके हैं जिनमें इस धारा का महत्वपूर्ण काम शामिल है। छठे खंड से इसमें संपादकीय भी आने लगा। इस समूह के इतिहासकारों की जो पाठ्यवस्तु इन संकलनों में शामिल है उन्हें ‘सबाल्टर्न’ दृष्टि के उदाहरणों के रुप में देखा जा सकता है। इस इतिहास लेखन धारा की शुरुआत बंगाल के

कथौड़ी समुदाय- सुचेता सिंह

शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म

दस कहानियाँ-१ : अज्ञेय

दस कहानियाँ १ : अज्ञेय- हीली- बोन् की बत्तखें                                                     राजाराम भादू                      1. अज्ञेय जी ने साहित्य की कई विधाओं में विपुल लेखन किया है। ऐसा भी सुनने में आया कि वे एक से अधिक बार साहित्य के नोवेल के लिए भी नामांकित हुए। वे हिन्दी साहित्य में दशकों तक चर्चा में रहे हालांकि उन्हें लेकर होने वाली ज्यादातर चर्चाएँ गैर- रचनात्मक होती थीं। उनकी मुख्य छवि एक कवि की रही है। उसके बाद उपन्यास और उनके विचार, लेकिन उनकी कहानियाँ पता नहीं कब नेपथ्य में चली गयीं। वर्षों पहले उनकी संपूर्ण कहानियाँ दो खंडों में आयीं थीं। अब तो ये उनकी रचनावली का हिस्सा होंगी। कहना यह है कि इतनी कहानियाँ लिखने के बावजूद उनके कथाकार पक्ष पर बहुत गंभीर विमर्श नहीं मिलता । अज्ञेय की कहानियों में भी ज्यादा बात रोज पर ही होती है जिसे पहले ग्रेंग्रीन के शीर्षक से भी जाना गया है। इसके अलावा कोठरी की बात, पठार का धीरज या फिर पुलिस की सीटी को याद कर लिया जाता है। जबकि मैं ने उनकी कहानी- हीली बोन् की बत्तखें- की बात करते किसी को नहीं सुना। मुझे यह हिन्दी की ऐसी महत्वपूर्ण

भूलन कांदा : न्याय की स्थगित तत्व- मीमांसा

वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है। भूलन कांदा  को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी  की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्ता- संरचना

समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान-1

रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक जयपुर में हो रहा है ,जबकि दुनिया में नाटक कहीं से कहीं पहुँच चुका है |” उनकी चिंता वाजिब थी क्योंकि राजस्थान

वंचना की दुश्चक्र गाथा

  मराठी के ख्यात लेखक जयवंत दलवी का एक प्रसिद्ध उपन्यास है जो हिन्दी में घुन लगी बस्तियाँ शीर्षक से अनूदित होकर आया था। अभी मुझे इसके अनुवादक का नाम याद नहीं आ रहा लेकिन मुम्बई की झुग्गी बस्तियों की पृष्ठभूमि पर आधारित कथा के बंबइया हिन्दी के संवाद अभी भी भूले नहीं है। बाद में रवीन्द्र धर्मराज ने इस पर फिल्म बनायी- चक्र, जो तमाम अवार्ड पाने के बावजूद चर्चा में स्मिता पाटिल के स्नान दृश्य को लेकर ही रही। बाजारू मीडिया ने फिल्म द्वारा उठाये एक ज्वलंत मुद्दे को नेपथ्य में धकेल दिया। पता नहीं क्यों मुझे उस फिल्म की तुलना में उपन्यास ही बेहतर लगता रहा है। तभी से मैं हिन्दी में शहरी झुग्गी बस्तियों पर आधारित लेखन की टोह में रहा हूं। किन्तु पहले तो ज्यादा कुछ मिला नहीं और मुझे जो मिला, वह अन्तर्वस्तु व ट्रीटमेंट दोनों के स्तर पर काफी सतही और नकली लगा है। ऐसी चली आ रही निराशा में रजनी मोरवाल के उपन्यास गली हसनपुरा ने गहरी आश्वस्ति दी है। यद्यपि कथानक तो तलछट के जीवन यथार्थ के अनुरूप त्रासद होना ही था। आंकड़ों में न जाकर मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि भारत में शहरी गरीबी एक वृहद और विकराल समस्य

डांग- एक अभिनव आख्यान

डांग: परिपार्श्व कवि- कथाकार- विचारक हरिराम मीणा के नये उपन्यास को पढते हुए इसका एक परिपार्श्व ध्यान में आता जाता है। डाकुओं के जीवन पर दुनिया भर में आरम्भ से ही किस्से- कहानियाँ रहे हैं। एक जमाने में ये मौखिक सुने- सुनाये जाते रहे होंगे। तदनंतर मुद्रित माध्यमों के आने के बाद ये पत्र- पत्रिकाओं में जगह पाने लगे। इनमें राबिन हुड जैसी दस्यु कथाएं तो क्लासिक का दर्जा पा चुकी हैं। फिल्मों के जादुई संसार में तो डाकुओं को होना ही था। भारत के हिन्दी प्रदेशों में दस्यु कथाओं के प्रचलन का ऐसा ही क्रम रहा है। एक जमाने में फुटपाथ पर बिकने वाले साहित्य में किस्सा तोता मैना और चार दरवेश के साथ सुल्ताना डाकू और डाकू मानसिंह किताबें भी बिका करती थीं। हिन्दी में डाकुओं पर नौटंकी के बाद सैंकड़ों फिल्में बनी हैं जिनमें सुल्ताना डाकू, पुतली बाई और गंगा- जमना जैसी फिल्मों ने बाक्स आफिस पर भी रिकॉर्ड सफलता पायी है। जन- सामान्य में डाकुओं के जीवन को लेकर उत्सुकता और रोमांच पर अध्ययन की जरूरत है। एक ओर उनमें डाकुओं के प्रति भय और आतंक का भाव होता है तो दूसरी तरफ उनसे जुड़े किस्सों के प्रति जबरदस्त आकर्षण रहत