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दस कहानियाँ-१ : अज्ञेय

दस कहानियाँ
:अज्ञेय-हीली- बोन् की बत्तखें

                                                   राजाराम भादू                     
1.
अज्ञेय जी ने साहित्य की कई विधाओं में विपुल लेखन किया है। ऐसा भी सुनने में आया कि वे एक से अधिक बार साहित्य के नोवेल के लिए भी नामांकित हुए। वे हिन्दी साहित्य में दशकों तक चर्चा में रहे हालांकि उन्हें लेकर होने वाली ज्यादातर चर्चाएँ गैर- रचनात्मक होती थीं। उनकी मुख्य छवि एक कवि की रही है। उसके बाद उपन्यास और उनके विचार, लेकिन उनकी कहानियाँ पता नहीं कब नेपथ्य में चली गयीं। वर्षों पहले उनकी संपूर्ण कहानियाँ दो खंडों में आयीं थीं। अब तो ये उनकी रचनावली का हिस्सा होंगी। कहना यह है कि इतनी कहानियाँ लिखने के बावजूद उनके कथाकार पक्ष पर बहुत गंभीर विमर्श नहीं मिलता ।

अज्ञेय की कहानियों में भी ज्यादा बात रोज पर ही होती है जिसे पहले ग्रेंग्रीन के शीर्षक से भी जाना गया है। इसके अलावा कोठरी की बात, पठार का धीरज या फिर पुलिस की सीटी को याद कर लिया जाता है। जबकि मैं ने उनकी कहानी- हीली बोन् की बत्तखें- की बात करते किसी को नहीं सुना। मुझे यह हिन्दी की ऐसी महत्वपूर्ण कहानियों में एक लगती रही है जिसे विश्व- स्तरीय रचनाओं के साथ रखा जा सकता है। मगर यह भी अभी तक मेरी समझ से बाहर रहा है कि आखिर इस पर हिन्दी में उतना ध्यान क्यों नहीं दिया गया।
हीली बोन ...अज्ञेय की बाकी सभी कहानियों से सर्वथा भिन्न है। हालांकि रोज के बारे में भी यही बात कही जाती है। लेकिन हीली बोन... रोज से भी अलग है, इसकी भाषा, विन्यास, शैली सब। हीली बोन का चरित्र, उसकी दुनिया और उसके जीवन का मानवीय रहस्य, घटना- परिघटना उसे समय की सीमाओं के पार ले जाते हैं। वह रहस्य, जो आपको लगता है कि आपके लिए खुल गया है लेकिन फिर भी आप आश्वस्त नहीं हो पाते। जो हमारी अपनी ही दुनिया का हमसे नया परिचय कराता है। जो मूल्यों के नैतिक और पारंपरिक रूपों को प्रश्नित कर देता है। इसके कथानक को किसी प्रचलित ढांचे में रखकर देख पाना कठिन नहीं बल्कि असंभव जैसा है ।
उस दौर की कहानियों में आये स्त्री- चरित्रों की तुलना में भी देखें तो हीली- बोन् अनुपम और अग्रगामी है। यह १९४७ में लिखी कहानी है, आजादी के पहले अथवा तुरंत पश्चात। तब तक गुलेरी जी की उसने कहा था आ चुकी थी, जिसकी नायिका एक बिंदास किशोरी की एक झलक के बाद स्त्री की परछाईं में बदल चुकी थी। अज्ञेय उत्तर छायावादी काल में आते हैं। प्रसाद इतिहास से मधूलिका जैसी उदात्त नायिका ( पुरस्कार) को ला रहे हैं, दूसरी ओर प्रेमचंद की दारुण कष्ट झेलती बूढी काकी और खाला हैं। जैनेन्द्र की स्त्रियाँ मध्यवर्गीय मर्यादा को लांघने के आरंभिक उपक्रम भर कर रही हैं जो अश्क जी वगैरह की कहानियों में आगे जारी रहता है।

इस प्रसंग में सुदूर सीमांत के जनजातीय पर्वतीय अंचल में हीली- बोन् सही मायने में ठोस यथार्थ की जमीन में सांस लेता और संघर्ष करता आधुनिक चरित्र है। ये चरित्र अपने साथ एक व्यक्ति की इयत्ता, नैसर्गिक जीवन से उसके संबंध और हस्तक्षेपकारी शक्तियों से उसके द्वंद्व को प्रामाणिक और प्रभावी तरीके के साथ लेकर आता है। संभवतः ये अज्ञेय की आरंभिक यायावरी के अनुभवों से उपजी कहानी है। यह कहानी एक सुबह से चलकर अगली सुबह तक के चौबीस घंटे में खत्म हो जाती है।
२. 
कहानी के शुरूआती परिवेश से ही हीली बोन के अकेले जीवन की वीरानी और कुछ अपघटित होने का संकेत मिल जाता है :
उसकी थकी- थकी- सी आंखें पिछवाड़े के गीली लाल मिट्टी के काई- ढंके किन्तु साफ फर्श पर टिक गयीं। काई जैसे लाल मिट्टी को दीखने देकर भी एक चिकनी झिल्ली से उसे छाये हुए थी ; वैसे ही हीली- बोन की आंखों पर कुछ छा गया जिसके पीछे आंगन के चांचों और तरतीब से सजे हुए जरेनियम के गमलों, दो रंगीन बेंत की कुर्सियों और रस्सी पर टंगे हुए तीन- चार धुले हुए कपडों  की प्रतिच्छवि रह कर भी न रही। और, कोई और गहरे देखता तो अनुभव करता कि सहसा उसके मन पर भी कुछ शिथिल और तन्द्रामय छा गया है, जिससे उसकी इन्द्रियों की ग्रहणशीलता तो ज्यों की त्यों रही है पर गृहीत छाप को मन तक पहुंचाने और मन को उद्वेलित करने की प्रणालियां रुद्ध हो गयी हैं।
सुबह के इस सिलसिले में हीली- बोन पाती है कि उसकी प्रिय बत्तखों में से आज फिर किसी बत्तख का शिकार हो गया है। ऐसा पिछले तीन- चार दिन से चल रहा था कि कोई जंगली जानवर उसकी प्रिय बत्तखों में से एक- दो को अपने जबडों में दबा कर ले जाता था। तभी कहानी में दूसरे पात्र कैप्टन दयाल का प्रवेश है जो उस समय बाडे के पीछे की पगडंडी से गुजर रहे थे और हीली को परेशान देखकर उससे बात करने लगते हैं। वे बाहर से आये हुए हैं, कुछ दिन वहाँ रुकने वाले हैं, बत्तखों के शिकारी का शिकार करने का हीली को प्रस्ताव देते हैं। आरंभिक संकोच के बाद हीली इसके लिए तैयार हो जाती है। रात को कैप्टन दयाल अपना मोर्चा संभाल लेते हैं। वे बत्तख का शिकार करने आयी लोमड़ी पर गोली भी चलाते हैं लेकिन वह भाग निकलती है। सुबह हीली- बोन अपने डाओ को हाथ में लिए कैप्टन के साथ घायल लोमड़ी को ढूंढने झरने की ओर निकलती है जो कैप्टन दयाल के अनुसार बहुत देर तक जीवित रहने वाली नहीं है।
और वह उन्हें मिलती है : हीली ने स्थिर दृष्टि से देखा। करारे में मिट्टी खोदकर बनायी हुई खोह में- या कि खोह की देहरी पर- नर लोमड़ी का प्राणहीन आकार दुबका पड़ा था- कांस के फूल के झाडू- सी पूंछ उसकी रानों को ढंक रही थी, जहां गोली का जख्म होगा। भीतर शिथिल-गत लोमड़ी उस शव पर झुकी थी, शव के सिर लोमड़ी के पांवों से उलझते हुए तीन छोटे- छोटे बच्चे कुममुना रहे थे।
इस दृश्य पर कैप्टन दयाल कहते हैं, यह भी तो डाकू होगी-...वे प्रस्ताव करते हैं, इसे भी मार दें...। लेकिन उन्हें प्रत्युत्तर नहीं मिलता, हीली- बोन वहाँ से लौट चुकी है।
कहानी की सबसे अबूझ और जटिल परिघटना इसके बाद की है। वहाँ से लौटकर हीली अपने धारदार हथियार- डाओ- से एक- एक कर अपनी सभी ग्यारह बत्तखों को गला काट कर मार डालती है। कैप्टन दयाल को हीली की अनकही वापसी ही समझ नहीं आयी थी। जब उन्होंने लौटकर बत्तखों को मरे पड़ा पाया तो हीली से पूछा- यह क्या, मिस यिर्वा? और जबाव न पाकर फिर पूछा-  क्या हुआ, हीली ?... तो हीली की तिक्त और थर्राती आवाज सुनने को मिली - दूर रहो, हत्यारे !
और यहीं कहानी का अंत है। हीली- बोन द्वारा अपनी बत्तखों की इस तरह की गयी हत्या प्रश्न छोड जाती है जो आपका पीछा करता रहता है- आखिर उसने ऐसा क्यों किया ?
३.
इसके लिए जरा हीली के प्रोफाइल को समझने की कोशिश करें। हीली- बोन यिर्वा के पिता उस छोटे- से मांडलिक राज्य के दीवान रहे थे। हीली तीन संतानों में सबसे बड़ी थी, और अपनी दोनों बहिनों की अपेक्षा अधिक सुंदर भी। खासियों का जाति- संगठन स्त्री- प्रधान है, सामाजिक सत्ता स्त्री के हाथ है और वह अनुशासन में चलती नहीं, अनुशासन को चलाती है। हीली भी मानो नाड्- थ्लेम की अधिष्ठात्री थी। नाइक्रेम के नृत्योत्सव में, जब सभी मंडलों के स्त्री- पुरुष खासी जाति के अधिदेवता नगाधिपति को बलि देते थे और उसके मर्त्य प्रतिनिधि अपने सियेम का अभिनंदन करते थे, तब नृत्य- मंडली में हीली ही मौन- सर्वसम्मति से नेत्री हो जाती थी, और स्त्री- समुदाय उसी का अनुसरण करता हुआ झूमता  था, इधर और उधर, आगे और दांये और पीछे... नृत्य में अंग- संचालन की गति न द्रुत होती थी न विस्तीर्ण, लेकिन कम्पन ही सही, सिरहन ही सही, वह थी तो उसके पीछे- पीछे ; सारा समुद्र उसकी अंग- भंगिमा के साथ लहरें लेता था...।

अब वह चौंतीसवां वर्ष बिता रही है, उसकी दोनों बहिनें ब्याह करके अपने- अपने घर रहती हैं, पिता नहीं रहे और स्त्री- सत्ता के नियम अनुसार- उनकी सारी सम्पत्ति सबसे छोटी बहिन को मिल गयी। हीली के पास एक छोटा- सा घर और बगीचा है। इसमें भी वीरानी और उदासी व्याप्त है। पूरी कहानी चार हिस्सों में बंटी है और हर भाग में यह कुहिरल परिवेश हीली के आभ्यन्तर को भी प्रतिबिंबित करता है। इसके लिए ये अंश पढें जरा -
दिन में पहाड की हरियाली काली दीखती है, ललाई आग- सी दीप्त, पर सांझ के आलोक में जैसे लाल ही पहले काला पड जाता है। हीली देख रही थी ; बुरुस के वे इक्के- दुक्के गुच्छे न जाने कहां अंधकार- लीन हो गये हैं, जबकि चीड के वृक्षों के आकार अभी एक- दूसरे से अलग स्पष्ट पहचाने जा सकते हैं। क्यों रंग ही पहले बुझता है, फूल ही पहले ओझल होते हैं, जबकि परिपार्श्व की एकरूपता बनी रहती है ?
हीली का मन उदास होकर अपने में सिमट आया। सामने फैला हुआ नाड्- थ्लेम का पर्वतीय सौंदर्य जैसे भाप बनकर उड गया, चीड और बुरुंस, चट्टानें, पूर्व पुरुषों और स्त्रियों की खडी और पडी स्मारक शिलाएं, घास की टीलों- सी लहरें, दूर नीचे पहाड़ी नदी का ताम्र- मुकुट, मखमली चादर में रेशमी डोरे- सी झलकती हुई पगडंडी- सब मूर्त आकार पीछे हटकर तिरोहित हो गये। हीली की खुली आंखें भीतर को ही देखने लगीं- जहाँ भावनाएँ ही साकार थीं, और अनुभूतियाँ ही मूर्त...

कथाकार अपनी ओर से वर्णन में इस प्रश्न को उठाता है - यह कैसे हुआ कि वह नाइक्रेम की रानी, आज अपने चौंतीसवें वर्ष में इस कुटी के जरेनियम के गमले संवारती बैठी है, और अपने जीवन में ही नहीं, अपने सारे गाँव में अकेली है ? और इसका एक उत्तर आता है- अभिमान; लेकिन हीली इस उत्तर से खुद को सहमत नहीं पाती है। लोग कहते थे कि हीली सुंदर है, पर स्त्री नहीं है। वह बांबी क्या, जिसमें सांप नहीं बसता ? ... हीली की आंखें सहसा और घनी हो आयीं- नहीं, इससे आगे वह नहीं सोचना चाहती ! व्यथा मरकर भी व्यथा से अन्य कुछ हो जाती है ? बिना सांप की बांबी- अपरूप, अनर्थक मिट्टी का ढूह ! 
किन्तु यहां तक के वृत्तान्त से तो हीली की विषष्णता के ही कुछ संकेत मिलते हैं। हमें तो हीली के भीतर जमे उस लावे की टोह लेनी है जो फूटकर उसकी बत्तखों के ऊपर फैल गया था। इसके लिए हीली के द्वंद्व को समझने की कोशिश करें, वहाँ कहे हुए के पीछे काफी कुछ अनकहा है। ... वह याद करना चाहती तो याद करने को कुछ था- बहुत- कुछ था- प्यार उसने पाया था और उसने सोचा भी था कि- ... नहीं कुछ नहीं सोचा था। जो प्यार करता है, जो प्यार पाता है, वह क्या कुछ सोचता है ? सोच सब बाद में होता है, जब सोचने को कुछ नहीं होता। ...और यह हीली का बाद का जीवन है। इससे पहले बहुत कुछ है जो वह खो चुकी है।
उसके खोये हुए का अनुमान भी उसके वर्तमान से ही लगाया जा सकता है। आगन्तुक कैप्टन दयाल कहते हैं, आपका मकान बहुत साफ और सुंदर है। इस पर हीली का जबाव है, हां, यहां कोई कचरा फैलाने वाला जो नहीं है। अकेली रहती हूं। ...इसी तरह, जरेनियम, जो गमले में लगा लो तो फूल हैं, नहीं तो जंगली बूटी...  यह हीली का चुना हुआ अकेलापन है। अन्यथा इस अंश को देखें :
युद्ध की अशान्ति के इन तीन- चार वर्षों में कितने ही अपरिचित चेहरे दीखे थे, अनोखे रूप, उल्लसित, उच्छवासित, लोलुप, गर्वित, याचक, पाप- संकुचित, दर्प- स्फीत मुद्राएँ... और वह जानती थी कि इन चेहरों और मुद्राओं के साथ उसके गाँव की कई स्त्रियों के सुख- दुख, तृप्ति और अशान्ति, वासना और वेदना, आकांक्षा और संताप उलझ गये थे, यहां तक कि वहाँ के वातावरण में एक पराया और दूषित तनाव आ गया था। किन्तु वह उससे अछूती ही रही थी। यह नहीं कि उसने इसके लिए कुछ उद्योग किया था या कि उसे गुमान था- नहीं, यह जैसे उसके निकट कभी यथार्थ ही नहीं हुआ था।... जब कैप्टन दयाल हीली के जरा नजदीक आना चाहते हैं तो पाते हैं कि वह अपनी शालीन मुद्रा में सिमिट चुकी है।

असल में किसी बंद अध्याय के बाद हीली का लगाव अपनी बत्तखों के प्रति उमगा। इतनी बड़ी, इतनी सुंदर बत्तखें खासिया प्रदेश में और कहीं नहीं  थीं। स्वयं सियेम के पास भी नहीं, इसलिए सारे मंडल के गाँव उसकी बत्तखों से ईर्ष्या करते थे। ये बत्तखें उसकी आजीविका का भी जरिया थीं। इसलिए जब उसकी प्यारी बत्तखों का शिकार होने लगा तो वह दुख से भर गयी। इसी के चलते वह उस डाकू से छुटकारे के लिए तैयार हो गयी। लेकिन जब उसने मृत नर लोमड़ी के शव से सटी मादा और मासूम शिशुओं को विचरते देखा तो वह भीतर से हिल गयी-  ... उस कुनमुनाने में भूख की आतुरता नहीं थी, न वे बच्चे लोमड़ी के पेट के नीचे घुसड- पुसड करते हुए उसके थनों को ही खोज रहे थे... मां और बच्चों में किसी को ध्यान नहीं था कि गैर और दुश्मन की आंखें उस गोपन घरेलू दृश्य को देख रही हैं।
असल में यह निर्णय इस दृश्य से निकला है।... उसके तूफानी वेग से चौंककर बत्तखें पहले तो बिखर गयीं, पर जब वह एक कोने में जाकर बाडे के सहारे टिककर खडी अपलक उन्हें देखने लगी तब वे गरदनें लंबी करके उचकती हुई- सी उसके चारों ओर जुट गयीं और क-क् ! क-क् करने लगीं।... वह अधैर्य हीली को छू न सका, जैसे चेतना के बाहर से फिसलकर गिर गया। हीली शून्य दृष्टि से बत्तखों को ताकती रही।... अनदेखते अचूक निश्चय से हीली ने जब डाओ चलाया तो उसके मुंह से निकला- अभागिन! 
क्या यह प्रतिहिंसा है ? नहीं। हीली- बोन ने इस तरह एक बार और अपने ही एक हिस्से को फिर से मारा है। अपने एक बड़े हिस्से को मारकर तो वह पहले ही अपने आस- पास से असंपृक्त हो गयी थी। अब देखा, बत्तखों के साथ उसके प्यार ने एक प्राणी परिवार को आघात पहुंचाया। जब वह कैप्टन दयाल को हत्यारा कहती है तो उसमें कहीं एक आवृत्ति छुपी हुई है। इस कहानी की सबसे रचनात्मक शक्ति यही है कि हिंसक चित्रण के बावजूद यह हिंसा के प्रति वितृष्णा उत्पन्न करती है और हीली- बोन एक अपराधी नहीं, बल्कि त्रासद नायिका की तरह अविस्मरणीय हो जाती है।
४.
आज हिन्दी साहित्य में स्त्रीवाद और आदिवासी विमर्श उभार पर हैं। लेकिन पता नहीं तब भी लोगों को हीली- बोन की बत्तखें कहानी क्यों याद नहीं आती है ।
 यह कहानी कई स्त्री- प्रश्नों पर नये सिरे से सोचने को प्रेरित करती है। हीली- बोन मातृसत्तात्मक समुदाय से है। जब उसके मन में अपने अभिमान को लेकर मंथन चल रहा है तो विचार आता है, स्त्री का क्या अभिमान... वह तो है... केवल उत्तरदायिनी। इसका मतलब है कि मातृसत्तात्मक व्यवस्था भी स्त्रियों के गरिमापूर्ण जीवन के लिए कोई गारंटी नहीं है।
हीली नर लोमड़ी की मौत और प्राणी परिवार के लिए इस आघात से आहत होती है। वह उन मूल्यों में जीती रही है जो प्रकृति और प्राणी- जगत के जीवन में कोई हस्तक्षेप करना अच्छा नहीं मानते। ठीक वैसे ही खुद अपने जीवन में, जहां वे प्रकृति के साहचर्य में जीवन बिताते आये हैं, बाहरी हस्तक्षेप को पसंद नहीं करते। जबकि ऐसा दखल उनके जीवन में हो रहा है और वहाँ पराया प्रदूषण बढता जा रहा है। कैप्टन दयाल ये स्वीकार करते हैं, नीचे वालों ने हमेशा पहाड वालों के साथ अन्याय ही किया है। समझ लीजिए कि पातालवासी शैतान देवताओं से बदला लेना चाहते हैं। जबकि हीली इस अंतर को अपनी मिथकीय दृष्टि से देखती है, हम लोग मानते हैं कि पृथ्वी और आकाश पहले एक थे- पर दोनों को जोडने वाली धमनी इंसान ने काट दी। तब से दोनों अलग हैं और पृथ्वी का घाव नहीं भरता। दृष्टिकोण का यह अंतर आगे दोनों के व्यवहार में प्रकट होता है। कैप्टन दयाल हीली और उसकी दुनिया को केवल बाहर से देखते हैं। हिंसा उनके लिए महज शगल है। नर लोमड़ी की हत्या से विचलित हीली का व्यवहार उन्हें अजीब लगता है जबकि हीली का कोई पुराना आघात उभर आया है, जिसमें उसके वर्तमान वीरान जीवन की जड़ें हैं, इसलिए वह मदद करने के बावजूद कैप्टन दयाल को तिक्तता से हत्यारा कहती है।

अज्ञेय की यह कहानी उत्तर- पूर्व के सीमांत की उस समस्या को आरंभिक स्तर पर चीन्हती है जो आगे चलकर विकराल होती गयी। वहां लागू सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून (AFSPAने सुरक्षा बलों को असीमित अधिकार दे दिये जिसके चलते सबसे ज्यादा दमन और उत्पीड़न वहाँ की स्त्रियों को ही झेलना पड़ा। हालांकि उसका सबसे अधिक प्रतिकार भी उन्होंने ही किया है। इरोम शर्मिला ने इस जन- विरोधी कानून को हटाने और न्याय के लिए वर्षों अनशन किया। मणिपुर की महिलाओं ने सुरक्षा बलों द्वारा किये गये बलात्कार व अत्याचारों के विरुद्ध नग्न विरोध प्रदर्शन किया।
अज्ञेय ने इस कहानी में बड़े संवेदनशील तरीके से उस अंचल का पक्ष प्रस्तुत किया है। उन्होंने लिखा है : ... जिधर नयी धूप में चीड की हरियाली दुरंगी हो रही थी और बीच- बीच में बुरुंस के गुच्छे- गुच्छे गहरे लाल फूल मानो कह रहे थे- पहाड के भी ह्रदय है, जंगल के भी ह्रदय है....। हीली- बोन का चित्रण अत्यंत गरिमा- युक्त है। कहानी के अंत के ये अंश बहुत कुछ कहते हैं : कैप्टन दयाल ने आकर देखा, खंभे के सहारे एक अचल मूर्ति बैठी है जिसके हाथ लथपथ हैं और पैरों के पास खून से रंगी डाओ पडी है।... हीली की  आंखों में वह निर्व्याज सूनापन घना हो आया है जो कि पर्वत का चिरन्तन विजय सौंदर्य है ।

राजाराम भादू
 मानव शास्त्र से लेकर शिक्षा के क्षेत्र तक राजाराम भादूू का कार्यस्थल फैला हुआ है । संपादन , सामाजिक कार्यकर्ता समेत अनेक भूमिकाओं का सफल निर्वाहन । आलोचना के क्षेत्र में लंबे समय से सक्रिय राजाराम भादू वर्तमान में समानांतर संस्थान के निदेशक हैंं ।



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रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक जयपुर में हो रहा है ,जबकि दुनिया में नाटक कहीं से कहीं पहुँच चुका है |” उनकी चिंता वाजिब थी क्योंकि राजस्थान

कथौड़ी समुदाय- सुचेता सिंह

शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म

लेखक जी तुम क्या लिखते हो

संस्मरण   हिंदी में अपने तरह के अनोखे लेखक कृष्ण कल्पित का जन्मदिन है । मीमांसा के लिए लेखिका सोनू चौधरी उन्हें याद कर रही हैं , अपनी कैशौर्य स्मृति के साथ । एक युवा लेखक जब अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के उस लेखक को याद करता है , जिसने उसका अनुराग आरंभिक अवस्था में साहित्य से स्थापित किया हो , तब दरअसल उस लेखक के साथ-साथ अतीत के टुकड़े से लिपटा समय और समाज भी वापस से जीवंत हो उठता है ।      लेखक जी तुम क्या लिखते हो                                             सोनू चौधरी   हर बरस लिली का फूल अपना अलिखित निर्णय सुना देता है, अप्रेल में ही आऊंगा। बारिश के बाद गीली मिट्टी पर तीखी धूप भी अपना कच्चा मन रख देती है।  मानुष की रचनात्मकता भी अपने निश्चित समय पर प्रस्फुटित होती है । कला का हर रूप साधना के जल से सिंचित होता है। संगीत की ढेर सारी लोकप्रिय सिम्फनी सुनने के बाद नव्य गढ़ने का विचार आता है । नये चित्रकार की प्रेरणा स्त्रोत प्रकृति के साथ ही पूर्ववर्ती कलाकारों के यादगार चित्र होते हैं और कलम पकड़ने से पहले किताब थामने वाले हाथ ही सिरजते हैं अप्रतिम रचना । मेरी लेखन यात्रा का यही आधार रहा ,जो

वंचना की दुश्चक्र गाथा

  मराठी के ख्यात लेखक जयवंत दलवी का एक प्रसिद्ध उपन्यास है जो हिन्दी में घुन लगी बस्तियाँ शीर्षक से अनूदित होकर आया था। अभी मुझे इसके अनुवादक का नाम याद नहीं आ रहा लेकिन मुम्बई की झुग्गी बस्तियों की पृष्ठभूमि पर आधारित कथा के बंबइया हिन्दी के संवाद अभी भी भूले नहीं है। बाद में रवीन्द्र धर्मराज ने इस पर फिल्म बनायी- चक्र, जो तमाम अवार्ड पाने के बावजूद चर्चा में स्मिता पाटिल के स्नान दृश्य को लेकर ही रही। बाजारू मीडिया ने फिल्म द्वारा उठाये एक ज्वलंत मुद्दे को नेपथ्य में धकेल दिया। पता नहीं क्यों मुझे उस फिल्म की तुलना में उपन्यास ही बेहतर लगता रहा है। तभी से मैं हिन्दी में शहरी झुग्गी बस्तियों पर आधारित लेखन की टोह में रहा हूं। किन्तु पहले तो ज्यादा कुछ मिला नहीं और मुझे जो मिला, वह अन्तर्वस्तु व ट्रीटमेंट दोनों के स्तर पर काफी सतही और नकली लगा है। ऐसी चली आ रही निराशा में रजनी मोरवाल के उपन्यास गली हसनपुरा ने गहरी आश्वस्ति दी है। यद्यपि कथानक तो तलछट के जीवन यथार्थ के अनुरूप त्रासद होना ही था। आंकड़ों में न जाकर मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि भारत में शहरी गरीबी एक वृहद और विकराल समस्य