समकालीन सांस्कृतिक परिदृश्य में भारत एक सर्वथा नया परिघटनात्मक परिवर्तन दिखायी देता है। समूचा भारत इस समय सांस्कृतिक परिवर्तन से गुजर रहा है। भारतीय संस्कृति की विभिन्न धाराएं एक तरफ तो भूमंडलीय सांस्कृतिक वर्चस्व और आक्रमण की शिकार हैं। दृश्य मीडिया इसका प्रबल माध्यम बना हुआ है। दूसरी तरफ इसकी प्रतिक्रिया में सांस्कृतिक पुनरुत्थानवाद उभर रहा है, धार्मिक कट्टरपंथ उसकी अगुवाई कर रहा है। इन दोनों अतिवादी धाराओं के मध्य संस्कृति के बाजारीकरण की प्रक्रिया घटित हो रही है। सांस्कृतिक सृजनात्मक विधाएं उत्पाद में बदलती जा रही हैं और इनके विपणन का एक वृहद कारोबार विकसित हो रहा है।
समकालीन हिन्दी साहित्य में कई प्रवृत्तियों ने विकास किया है। इनमें दलित और आदिवासी साहित्य धारा, स्त्री- अस्मिता विमर्श और अल्पसंख्यक प्रश्न हैं। इनका मूल्यांकन संस्कृति के विस्तृत फ्रेमवर्क में ही संभव है। जबकि कोई व्यवस्थित संस्कृति प्रतिमान उपलब्ध ही नहीं हैं। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि इस सांस्कृतिक संक्रमण और समकालीन संस्कृति चिन्तन की वस्तुगत समीक्षा की जाये और संस्कृति के मूलभूत घटकों पर व्यवस्थित विचार हो। सांस्कृतिक विश्लेषण किसी परिप्रेक्ष्य और प्रतिमानों के बिना संभव नहीं है। दर्शन, संस्कृति और साहित्य के अन्त: अनुशासनीय सम्बन्ध इस परिप्रेक्ष्य- निर्मिति एवं प्रतिमानों के निर्धारण को सुनिश्चित कर सकते हैं।
यह पुस्तक संस्कृति से सम्बद्ध समसामयिक प्रश्नों को सम्बोधित करती है। भारतीय समाज का ताना- बाना सामासिक है। यह एक बहु- सांस्कृतिक देश है। ऐसे में बहुलवाद और सामाजिक सहिष्णुता इसके मूलाधार होने चाहिए। भारत एक प्राचीन संस्कृति वाला देश है। प्राचीनता के संदर्भ में परंपरा विशेष अहमियत रखती है।
संस्कृति अपने आप में एक संश्लिष्ट प्रत्यय है। साथ ही संस्कृति अपनी प्रकृति में ही गतिशील, फलत: परिवर्तनशील है। कोई भी परिवर्तन सामान्यतः सहज घटित नहीं होता। यह समाज के किसी घटक में स्वाभाविक रूप से द्वंद्व और उद्वेलन पैदा करता है। समाज के नेतृत्व, विशेषकर बौद्धिक वर्ग का यह दायित्व है कि वह सांस्कृतिक परिवर्तन पर नज़र रखे और उसका उचित विश्लेषण कर समाधान प्रस्तुत करे।
इस पुस्तक में संस्कृति को व्यापक अर्थ में लिया गया है। साहित्य, कला और स्थापत्य जैसी विधाओं को संस्कृति- रूप मानकर चला गया है। जबकि धर्म, शिक्षा, मीडिया और भाषा को संस्कृति के प्रमुख घटकों की तरह देखा गया है। क्षेत्रीयता,सांप्रदायिकता, जाति और लिंग- भेद जैसी समस्याओं को इन घटकों के संदर्भ में ही समझा जा सकता है।
पुस्तक की विषय- वस्तु मौजूदा दौर के ज्वलंत सांस्कृतिक मुद्दों को विचार के दायरे में लाने की कोशिश करती है। भारतीय समाज भी संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। इसमें सामाजिक गतिशीलता के साथ समूहों के रूपान्तरण की प्रक्रिया सतत् रूप से जारी है। अस्मिता का मुद्दा भी इसी प्रक्रिया की देन है जिसने दलितों और आदिवासियों का एक नया उभार उत्पन्न किया है। स्त्रीवादी समूहों ने अपनी नयी अभिव्यक्ति दी है। इन क्षेत्रों में प्रतिरोध की चेतना ने सामाजिक- सांस्कृतिक रूपान्तरण को नयी धार दी है। पुस्तक में अस्मिता और प्रतिरोध के प्रश्नों को लोकतांत्रिक जीवन- मूल्यों के प्रसंग में प्रस्तुत किया है। संविधान में प्रदत्त स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे लोकतांत्रिक मूल्य ही एक सर्व- समावेशी ढांचा प्रस्तुत कर सकते हैं जिसमें सभी अस्मिताएं समायोजित हो सकती हैं।
संस्कृति के प्रश्नों को सम्बोधित करते हुए अकादमिक विमर्श के साथ जमीनी यथार्थ को भी संदर्भ में रखा गया है। लेखक एक ऐसे संस्थान से सम्बद्ध है जो शिक्षा और शोध के साथ वंचित समुदाय के सशक्तिकरण के लिए सन्नद्ध है। इस अर्थ में कह सकते हैं कि चिन्तन के स्तर पर रही कई धारणाओं का क्षेत्र- परीक्षण कर उनके अनुभवों को भी विश्लेषण में शामिल किया गया है। कहना न होगा कि यहां संकलित सभी लेख अलग- अलग समय पर लिखे गये है, प्रकाशित हुए हैं और चर्चा में रहे हैं।
वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर
Email : bagdevibooks@gmail.com
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