कवि- एकादश २००८ में मेधा बुक्स ( दिल्ली) से प्रकाशित कविता-संचयन है। इसका संपादन लीलाधर मंडलोई और अनिल जनविजय ने किया है। इसे तार- सप्तक के बाद की हिन्दी कविता का प्रतिनिधि संकलन कहा गया है जिसमें ११ कवियों की चुनी हुई कविताएँ हैं। कविताओं से पूर्व कवि का विस्तृत परिचय और आत्म- कथ्य दिया गया है। ये ११ कवि हैं : विष्णुचन्द्र शर्मा, मलय, चन्द्रकान्त देवताले, विजेन्द्र, विनोद कुमार शुक्ल, भगवत रावत, नरेश सक्सैना, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, ऋतुराज, वेणु गोपाल और सुदीप बनर्जी हैं। संपादक- द्वय ने इस संचयन की एक भूमिका लिखी है जिसमें इसके एक और खंड निकालने की बात है। मुझे लगता था कि इस संचयन को लेकर काफी वाद- विवाद होगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। यह भी पता नहीं चला कि लोग इसे स्वीकार कर रहे हैं अथवा खारिज। अचर्चित रह गये इस सचयन का अगला खंड भी मेरी जानकारी में तो आया नहीं। क्या पता इसके अलक्षित चले जाने से इसके संपादकों का उत्साह ठंडा पड गया हो।
हिन्दी रचनाकारों के अलग- अलग संचयन अनेक लोगों द्वारा निकाले जाते रहे हैं और उनमें सामान्यतः कुछ बुरा नहीं है। लेकिन संपादक- द्वय ने इस संचयन के कवियों को तार- सप्तक के बाद के प्रतिनिधि कवि कहा है, यह घोषणा आसानी से स्वीकार की जाने वाली नहीं है। इस पर विचार के लिए हमें तार- सप्तकों के बाद के समय में जाना होगा। उस समय के दौर का एक परिचय तो हमें नामवर जी की बहुचर्चित पुस्तक कविता के नये प्रतिमान और उस पर हुए वैचारिक मंथन से मिलता है। यह मान्यता रही कि नामवरजी ने तार- सप्तक के एक प्रकार से सैद्धांतिक प्रतिवाद में यह पुस्तक लिखी जिसमें वे नयी कविता को अपनी तरह से व्याख्यायित कर रहे थे। अपनी व्याख्या को वे एक वस्तुपरक रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं इसीलिए वे प्रतिमानों की बात करते हैं। आगे भी वे प्रतिमानों की बात करते रहे, भले ही कुछ बातें वे कहकर भूलते रहे। प्रतिमान को नामवर जी अंग्रेजी पद कैनन के लिए प्रयुक्त करते थे जिसके शाब्दिक मायने होते हैं- सिद्धांत, मापदंड और तालिका। कई बार वे कैननाइजेशन क्रिया- पद भी इस्तेमाल करते थे जिसका अर्थ संत- घोषणा भी होता है। ईसाइयत में किसी को संत घोषित करने की प्रक्रिया का संदर्भ यहां जुड़ा है। हम इसे किसी कवि के प्रतिष्ठापण से जोडकर देख सकते हैं। बहरहाल, नामवर जी के इस महती उपक्रम की सबसे अहम बात प्रतिमान को सृजन - मूल्यांकन के आधार रूप में स्थापित करना है।
जब यह बहस अपने उभार पर थी, आपातकाल के तुरंत बाद कर्णसिंह चौहान की किताब आयी- आलोचना के नये मान - जिसमें वे मुख्यतः नामवरजी के प्रतिमानों को पाश्चात्य नव्य- समीक्षा से जोडते हुए पैराडाइम के अर्थ में मान( दण्ड) को लेते हुए परिवर्तन ( शिफ्ट) की बात करते हैं। उनकी किताब की दो महत्वपूर्ण बातें अभी मुझे ध्यान आ रही हैं। पहली यह कि वे मुक्तिबोध की नयी तरह से व्याख्या करते हुए तार- सप्तकों से छूटे हुए नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल की पुनर्प्रतिष्ठा करते हैं। दूसरे, बड़े गहरे विश्लेषण से वे बताते हैं कि अकविता और तदनन्तर भूखी पीढी- नंगी पीढी से होती तत्कालीन हिन्दी कविता किस अधोगति को प्राप्त हो रही थी और कैसे उसे नक्सलवादी कविता ने उबारा। नक्सलबादी कविता को फलक पर लाने के लिए उनका अध्ययन सदैव याद किया जायेगा जिसमें उन्होंने आपातकाल में कई भूमिगत रही पत्रिकाओं में छपी कविताओं को भी शामिल किया है।
आलोचना के नये मान के बाद बाबा नागार्जुन, त्रिलोचन और केदार की तो दिनों- दिन महत्ता स्थापित होने लगी लेकिन नक्सलबादी कविता को पुनः भुला दिया गया। उस समय कर्णसिंह चौहान की संबद्धता माकपा से थी, संभवतः वे इसके कार्ड- होल्डर भी थे और नवगठित जनवादी लेखक संघ में राष्ट्रीय स्तर के पद पर थे , फिर नक्सलबादी कविता पर वे कैसे आगे काम कर सकते थे। वे जनवादी साहित्य की समस्याओं ( अगली किताब की तैयारी) में उलझे थे कि जलेस के सैद्धान्तिक शीर्ष पर पुनः रामविलास शर्मा आ गये। उसके बाद लंबे समय तक रामचंद्र शुक्ल बनाम हजारी प्रसाद द्विवेदी और तुलसी बनाम कबीर चलता रहा। प्रलेसं ने भी रामविलास जी की दिशा का अनुसरण किया क्योंकि तब तक वाम मोर्चा बन चुका था। रामविलास जी के आखिरी दिनों में वाम ने उनसे दूरी बनायी जब तक कि पांचजन्य में उनका साक्षात्कार नहीं आ गया। कहना यह है कि तार- सप्तक के बाद हिन्दी कविता की गंगा में बहुत पानी बहा है जिसकी तरफ से कवि एकादश के संपादकों ने किनारा किया हुआ है।
तार- सप्तकों के प्रकाशन के बाद यदि पिछली शताब्दी(२०००) की समाप्ति तक के कालखंड से भी चयन किया जाता, तो भी इस लंबी अवधि में ऐतिहासिक क्रम और उसके उतार- चढाव खास मायने रखते हैं। तब चयन में पहला अधिकार तो उनका बनता है जो कवि तार- सप्तक के कवियों से एक व्यापक सहमति के साथ समतुल्य माने गये थे, फिर भी उससे बाहर रहे थे। इनमें से तीन कवियों का संदर्भ ऊपर आ चुका है। दूसरे, अकविता के उन शीर्ष कवियों को इसमें शामिल होना चाहिए था जिन्हें अकविता और उसके बाद की प्रवृत्तियों की तमाम सीमाओं के बाबजूद निर्विवाद रूप से महत्वपूर्ण कवि माना जाता है। इनमें राजकमल चौधरी, धूमिल और लीलाधर जगूडी हैं। उल्लेखनीय है कि राजकमल चौधरी तो जल्दी चले गये लेकिन धूमिल उन लोगों में थे जिन्होंने बांदा सम्मेलन में साहित्यकारों द्वारा आपातकाल का समर्थन करने वाले प्रस्ताव का मुखर विरोध किया था। इससे उनके दृष्टि- परिवर्तन का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। बलदेव खटीक जैसी कविता लिखने वाले लीलाधर जगूडी की बाद की कविता हम सबके सामने है। तीसरे, इसमें उन कवियों को प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए जिन्होने भटकी और अवनत कविता ( उत्तर अकविता) को पुनः उबारा और विस्तार दिया। उनमें से वेणु गोपाल इस संचयन में हैं लेकिन आलोक धन्वा और कुमार विकल उनसे कहीं पीछे नहीं थे। विष्णुचन्द्र शर्मा से ज्यादा मुखर उस दौर में कुमारेन्द पारसनाथ सिंह थे। विष्णु जी प्रतिबद्ध से ज्यादा त्रिलोचन जी वाली धारा से आबद्ध रहे।
इस संकलन के कवियों के चयन में किसी पैराडाइम अथवा मापदंड के आधार का कोई आभास नहीं मिलता। प्रथम दृष्टया ही यह चयन व्यक्तिपरक और मनमाना लगता है। सबसे ज्यादा पांच कवि- चन्द्रकान्त देवताले, नरेश सक्सैना, सुदीप बनर्जी, भगवत रावत, और मलय मध्य प्रदेश से हैं। यदि जन्म स्थान को आधार मानें तो विनोद कुमार शुक्ल भी मध्य प्रदेश से ही माने जायेंगे क्योंकि तब छत्तीसगढ़ बना नहीं था। इसी आधार पर विजेन्द्र उत्तर प्रदेश के ठहरेंगे अन्यथा उत्तर प्रदेश से सिर्फ विश्वनाथ प्रसाद तिवारी अकेले रह जायेंगे। राजस्थान से ऋतुराज ही रहेंगे जबकि नंद चतुर्वेदी यहां का कहीं बेहतर प्रतिनिधित्व सकते थे। वेणु गोपाल का जन्म हैदराबाद का है। बिहार, उत्तराखण्ड और हिमाचल का इसमें कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। आप कह सकते हैं कि कवियों का कोई देश नहीं होता। सही है, लेकिन हम यह बात इसलिए कह रहे हैं कि संपादक- द्वय ने अपनी भूमिका में संचयन के लोकतांत्रिक होने का दावा किया है। तो यह तो हुई हिन्दी पट्टी के आधार पर प्रतिनिधित्व की बात, अब जरा श्रेणियों के आधार पर देख लें। यह एक भयंकर तथ्य है कि किसी सप्तक में कोई दलित- आदिवासी कवि नहीं है। स्त्री की वहाँ महज सांकेतिक उपस्थित है। कवि- एकादश का भी यही हाल है। संपादक कह रहे हैं कि चयनित कवियों की एक विशेषता यह है कि वे आज तक सक्रिय हैं। तब सक्रियता के लिहाज से तेजी ग्रोवर, गगन गिल और अनामिका ही नहीं कात्यायनी, नीलेश रघुवंशी और सविता सिंह खासी पहचान बना चुकी थीं। इसी तरह सप्तकों के समय तो दलित- आदिवासी कवि उभरे नहीं थे किन्तु विगत शताब्दी के आखिरी दशक तक तो हमारी कविता में वे दस्तक दे चुके थे।
इस संक्षिप्त और बेतरतीब टिप्पणी के आखिर में कहना यह है कि किसी भी कला पर विमर्श मूलतः देश- काल के प्रसंग और संदर्भ में होता है और वही उस कला के आंतरिक सार- तत्व का भी निर्धारण करता है। कला में पैराडाइम शिफ्ट के और क्या मायने हैं ? यही कि देश- काल के सांस्कृतिक अन्तर्विरोधों ने संबंधित कला में सारत: क्या परिवर्तन किया। मुझे लगता है, हम अपने समय के सांस्कृतिक अन्तर्विरोधों के सापेक्ष न तो कविता के प्रतिमानों का निर्धारण कर रहे हैं और फिर उसके वस्तुपरक मूल्यांकन का तो फिर प्रश्न ही कहां उठता है। कविता देश- काल का कितना और कैसा प्रतिबिंबन कर रही है, अन्तर्विरोधों के साथ उसके द्वंद्व की प्रकृति क्या है और किस प्रकार यह उनका अतिक्रमण कर आगे बढ़ रही है, यही तो उसकी अभिलाक्षणिकताएं हैं। और हम तो मौजूदा शताब्दी के दो दशकों की कविता की ही अभिलाक्षणिकताएं नहीं चीन्ह पा रहे हैं।
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