एक शाइर के किस्से के रंग
गली कासिम जान विनोद भारद्वाज का लिखा क्लासिक शायर मिर्ज़ा ग़ालिब पर जिंदगीनामा है। इसकी भूमिका में आलोक श्रीवास्तव ने गालिब के समय को पृष्ठभूमि के तौर पर प्रस्तुत किया है। उन्होंने भारतीय इतिहास में उस दौर को गोधूलि और धूसर संध्या की संज्ञा दी है। ग़ालिब की शायरी की चर्चा करते हुए वे इसे उर्दू और फारसी काव्य की तत्कालीन प्रचलित प्रवृतियों से भिन्न ठहराते हैं और उर्दू भाषा में एक युगान्तर कहते हैं। वे गालिब की शायरी को एक नष्ट होती सभ्यता की पुकार सम्बोधित करते हैं जो दुख- बोध के दर्शन से आपूरित है और जिसका भाव- जगत छू लेने वाला है। वे स्वीकारते हैं कि गालिब भारतीय नव- जागरण के ठीक पहले की शख्सियत हैं, यद्यपि वे यथार्थ के धरातल पर सोचने वाले विचारवान व्यक्ति हैं।
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ऐसे व्यक्ति की जीवनी रचना कोई मामूली चुनौती नहीं है। जैसाकि हमने कहा, गालिब एक क्लासिक शायर हैं जिनकी सार्वभौमिक अपील रही है। उन्हें लोग न जानते हुए भी जानते हैं और जानने का दावा करने वाले भी बहुत कम ही जानते हैं। तब यह चुनौती दोहरी हो जाती है। एक तो शख्सियत के वैयक्तिक और सर्जक के रूप में निर्मिति की प्रक्रिया की प्रामाणिक प्रस्तुति; दूसरे, उस देश- काल की सृष्टि- जिसका वह शख्स शिशु था। अपने नायक के आभ्यंतर और बाहरी दुनिया के साथ उसकी जद्दोजहद का प्रासंगिक निरूपण भी एक कठिन कार्य- भार है। तब तो और भी दुष्कर, जब समय गालिब जैसा विश्रृंलित हो और आत्मसंघर्ष भी कदम- कदम पर क्या करूं- क्या न करूं के द्वंद्व से गुजरता हो।
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शेक्सपियर ने कहा है, यदि घावों के पास जिव्हा होती तो वे अपनी पीडा चीख- चीख कर व्यक्त करते। विनोद भारद्वाज ने इस कृति में गालिब की पीडा को अभिव्यक्ति दी है लेकिन चीख कर नहीं, बल्कि संजीदगी और संवेदनशीलता के साथ, जैसी कि उनके मामले में दरकार थी। हम इसे कृति इसलिए कह रहे हैं कि यह महज जीवनी नहीं है। सच में तो यह गालिब को केन्द्र में रखकर लिखा गया एक उपन्यास है और आत्मकथात्मक शैली और हिन्दुस्तानी जबान में रचा उपन्यास होने की जरूरी शर्तें पूरा करता है। हिन्दी में जीवनियाँ अक्सर बोझिल और अतिरंजित होती हैं। जबकि इस कृति में औपन्यासिक छूट मिलते हुए भी कल्पना का उतना ही सहारा लिया गया है जितना कथ्य के प्रवाह को बनाये रखने के लिए जरूरी था। गालिब यहाँ अपने भौतिक वजूद ही नहीं वरन अपनी रूह के साथ संवाद कर रहे हैं। कथा कब्रों- मकबरों से शुरू होती गालिब की सृजनात्मक चेतना के निर्माण में सूफी पृष्ठभूमि से परिचय कराती है। गालिब अपने स्वतंत्र वजूद को लेकर शुरू से सचेत थे और उन्हें अपने इल्म और फन पर पूरा भरोसा था। इसमें गालिब के जीवन की लंबी कलकत्ता यात्रा का वृत्तान्त है जो उनकी सृजन यात्रा के लिहाज से बड़ा प्रस्थान- बिन्दु रही थी।
विनोद भारद्वाज गालिब की यात्रा के प्रसंग में उस समय के लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस और कलकत्ता जैसे शहरों का जीवंत चित्रण करते हैं। आगरा तो गालिब के शुरूआती जीवन के साथ आ ही चुका है। दिल्ली और गालिब का समय तो समान्तरता से चलता है। कलकत्ता यात्रा गालिब के लिए आज के क्रास कंन्ट्री एक्सपीरियंस की तरह है। कलकत्ता में उस समय भी कई देशों के लोग रह रहे थे और वह कास्मोपालिटन सिटी के रूप में आंखें खोल रहा था। वहाँ से भारत ब्रिटिश उपनिवेश की शक्ल ले रहा था। गालिब जान लेते हैं कि फोर्ट विलियम कालेज जैसे संस्थान असल में अंग्रेजी राज के लिए पुर्जे बनाने के कारखाने हैं। इस यात्रा से गालिब की अन्तर्दृष्टि को क्षैतिजिक विस्तार मिलता है।
कृति में गालिब हाड- मांस का अपनी कमजोरियों और अन्तर्विरोधों में जीता एक सामान्य व्यक्तित्व है। वह अपने इस व्यक्तित्व का अतिक्रमण कर सोचता और अपनी बैचेनियों में जागता है। उसका नायकत्व उसके सृजन में है। गालिब में हम आत्मावलोकन की प्रक्रिया को अनवरत पाते हैं। वह अपनी रचनात्मक गरिमा के
लिए भरसक संघर्ष करते हैं। गालिब रूमानीयत से तो मुक्त हैं ही, शराब का नियमित सेवन करने के बावजूद उनमें पलायनवाद नहीं है। उनके मटियाले अवसाद को आप यहाँ पारदर्शिता में देख सकते हैं।
वह समय था जब सामंती सत्ता ढह रही थी और इसके अनेक विवरण इस कृति में यत्र- तत्र बिखरे हैं। लेकिन उल्लेखनीय यह है कि गालिब के मित्र- शुभचिन्तकों का भी बौद्धिक स्तर कम नहीं है। लगता है कि तब तक पब्लिक स्फियर में बौद्धिक पतनशीलता का प्रवेश नहीं हुआ था। हालांकि सत्ता ने इन्हें अवमूल्यित और उपेक्षित कर दिया था। विनोद भारद्वाज ने संवादों के जरिए इनकी जो दुनिया रची है, वह चकित करती है।
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इस कृति में वैसे तो कई पात्र हैं जो यादगार हैं। बैक ड्राप में नजीर और मीर हैं तो गालिब के समकालीनों में जौक मोमिन और दीगर चरित्र हैं। लेकिन सबसे अहम दूसरा चरित्र है- गालिब की बीबी उमराव। कृति में सीधे उभरने वाला यह अकेला स्त्री पात्र है जो अपने समय की महिलाओं के सोच, संघर्ष और भूमिकाओं काे इंगित करता है। लेकिन गालिब की जिन्दगी में इसके योगदान को लेखक ने बड़ी शिद्दत से प्रस्तुत किया है। यह उन्ही का कमाल है कि चंद झलकियों और संवादों के जरिए वे उमराव को गालिब के बराबर खडा कर देते हैं। और ये गालिब हैं जो अपनी बीबी के सामने अकुंठ ग्लानि अनुभव करते हैं।
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आखिर में १८५७- जिसे सिपाही विद्रोह से लेकर गदर और क्रांति तक कहा गया। गालिब के मूल्यांकन में सबसे ज्यादा विवादास्पद पहलू यही है। अधिकतर इतिहासकार इसे भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम का पहला जन- उभार मानते हैं और गालिब के इसके प्रति रुख को लेकर सवाल किये जाते हैं।
पहले १८५७ पर पश्चिम से प्रतिक्रिया का एक अंश-
....उस समय फ्रांस के अखबारों ने और इंग्लैंड के जन नेता अर्नेस्ट जोंस ने १८५७ के इस महा- संग्राम का खूब समर्थन किया। जोंस ने १ अगस्त १८५७ को लिखा, भारत का सैनिक विद्रोह कोई फौजी बगाबत नहीं, यह एक राष्ट्रीय स्तर का संघर्ष है। फिर उन्होंने लिखा, विश्व इतिहास का यह अब तक का सबसे ज्यादा इंसाफ भरा, महान और जरूरी विद्रोह है। जब पोलैंड, हंगरी और इटली अपनी आजादी के लिए खडे हुए, तब आम अंग्रेजों ने उनके प्रति हमदर्दी जतायी थी, तो फिर हिन्दुस्तान को भी आम अंग्रेजों की हमदर्दी मिलनी चाहिए।
....जहां तक बुंदेलखंड के झांसी का संबंध है, हम कह सकते हैं कि यह किलाबंद शहर है और इस प्रकार यह विद्रोह का एक दूसरा केन्द्र है।
- न्यूयॉर्क डेली ट्रिब्यून, २९ अगस्त, १८५७
इस संदर्भ में, पहली बात तो यह कि प्राय: सभी जीवनीकार शोध करते हैं, विनोद भारद्वाज ने गालिब पर लंबा शोध किया है। उन्होंने इतिवृत्तों , किंवदंतियों और विवरणों को इस तरह कथानक में गूंथा है कि वे अलहदा प्रतीत नहीं होते। वे कहीं गालिब को न तो महान ठहराना चाहते है और न ही डिफेंड करते हैं। गालिब परिवार के जिस पेशे से आते हैं और जिससे उनकी आजीविका ( पेंशन) जुड़ी है, वह सामंती ढांचे का हिस्सा है। विद्रोह से कुछ ही समय पहले वे दिल्ली दरबार से जुडते हैं। तब तक ब्रिटिश निजाम स्थानीय सामंती ढांचे के सहारे ही अपना वर्चस्व फैला रहा था। गालिब को दिल्ली डूबती और अंग्रेज आते दिख रहे थे। कृति के अनुसार यह गालिब की जिन्दगी का सबसे मुश्किल दौर था जिसमें वे दूसरे मसलों पर सोच भी नहीं पाते थे।
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