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कभी न छीने काल

कभी न छीने काल

अपने जीवन में मैं ने देखा है सब कुछ
सारे विषाद भरे अनुभव हैं मेरे खाते में
तमाम लौकिक प्रार्थनाओं में
मैं गुहारता हूं बस एक
किसी बच्चे को कभी न छीने काल।

मैं जानता हूँ कि संभव नहीं कि मौत
फेंके न किसी पर फंदा अपना, फिर भी
थकूंगा नहीं, मैं गुहारता रहूंगा अनथक
किसी बच्चे को कभी न छीने काल।

वर्षों पहले वसुधा ने अपनी यशस्वी परंपरा में काएसिन कुलिएव की अनूदित कविताओं की पुस्तिका जारी की थी- कभी न छीने काल। उसी की शीर्षक कविता से ये पंक्तियों उद्धरित की गयी हैं। इनके अनुवादक थे- कवि सुधीर सक्सेना। एक कवि की सोच और अभिरुचि को जानने में उसके द्वारा चयनित रचनाकार और रचनाओं से काफी मदद मिलती है। मैं तभी से सुधीर सक्सेना की कविताओं को पढता रहा हूं। जीवन की हरीतिमा के प्रति उनके आग्रह और अनुरक्ति का कुछ रिश्ता तो काएसिन कुलिएव से भी जुडता ही है जो हिन्दी वालों के लिए बहुत परिचित कवि नहीं हैं।

सुधीर सक्सेना लगभग चार दशक से कविताएँ लिख रहे हैं और अभी तक उनके करीबन दस संकलन आ चुके हैं। यह तो नहीं कहा जा सकता कि उनकी उपेक्षा या अनदेखी हुई है पर मुझे यह जरूर लगता रहा है कि उनकी कविता को वैसी अहमियत नहीं मिली जिसकी कि यह हकदार है। इसके कारणों में झांकने पर लगता है कि इधर विचार का संवहन करने वाली कविता पर कम ध्यान दिया जा रहा है। बेशक, साहित्य में आन्दोलनों के दौर में विचार के नाम पर कविता में काफी अनर्गल चीजों का प्रवेश हुआ और कई बार वैचारिकता को सतही तरीके से भी पेश किया गया। वैसे इसी से निपटने के लिए तो आलोचना है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम विचार केन्द्रित कविता को नेपथ्य की ओर धकेल दें।

इस संदर्भ में यह उल्लेख भी जरूरी है कि विचार वामपंथ का पर्याय नहीं है और यदि इसे हिन्दी के आधुनिक साहित्य के संदर्भ में देखेंगे तो दक्षिण पंथ से भी इसकी दूरी समझ आ जायेगी। विचार का संदर्भ उस आधुनिक चेतना से जुड़ा है जो तर्क और विवेक से परिचालित है और आधुनिकता एक वैश्विक परिघटना थी।पाश्चात्य दर्शन के रेशनलिज्म से भी इसका संबंध रहा है। भारत की आजादी के ठीक पहले हम तर्क केन्द्रित समूहों की बंगाल से शुरू लेकर उत्तर भारत तक सक्रियता देखते हैं, नवजागरण के अध्येताओं ने इन पर काम किया है। इस प्रसंग में आधुनिक दार्शनिक रेने देकार्त द्वारा रेशनलिज्म की व्याख्या को याद कर लेना पर्याप्त है जो कहते हैं, यह एक ऐसी मान्यता या सिद्धान्त है जो कहता है कि हमारे मत एवं हमारी क्रियाएँ धार्मिक मान्यताओं तथा भावात्मक प्रतिक्रियाओं पर नहीं वरन् विवेक और ज्ञान पर आधारित होनी चाहिए।

हिन्दी कविता में हम छायावादोत्तर काल में विकसित होते साहित्य- शास्त्र को देखें जो कविता में भाव और विचार पर विमर्शरत है। नयी कविता में तो जिरह और बहसें इसी पर केन्द्रित हैं और हम इसके रूप- विधान को बदलता देखते हैं। यहाँ तक कि बिंब, सादृश्य और प्रतीकों की पुरानी परिपाटी में आमूल परिवर्तन आ जाता है। धूमिल तक सपाटबयानी को कविता की एक स्वीकृत लाक्षणिकता मान लिया जाता है। किन्तु विचार अंतत: अमूर्त है, इसलिए कविता में इसे साधना एक चुनौती है। हम अकविता और उसके सहवर्ती आन्दोलन में व्यर्थ विचारों के घटाटोप की आलोचना पाते हैं। आखिर विचार कविता में कैसे आयेगा, इसका कोई सूत्रीकरण संभव नहीं है पर यह कविता की तरह तो आना ही चाहिए। कविता में वक्तव्य, जिरह और संवाद की भंगिमा का संबंध कवि की दृष्टि और शैली से है।

सुधीर सक्सेना की कविता का यह परिप्रेक्ष्य है। उनकी कविता में कोई वैचारिक अाग्रह अथवा अतिरेक नहीं है। उनकी कविता का स्वर संयत और सांन्द्र है जो मौजूदा वक्त के कोलाहल के लिए एक प्रतिकार भी है। जबकि वे अपने समय के ज्वलंत विषयों से टकराते हैं। धूसर में बिलासपुर उनकी लंबी कविता है जिसमें इनकी काव्य- प्रविधियों को एक साथ लक्षित किया जा सकता है। बदलते शहरों पर अनेक कवियों ने कविताएँ लिखीं हैं जिनमें शहर के पारंपरिक चरित्र के लोप की चिंता और नये बदलाव को लेकर खिन्नता सामान्य है। आपका ट्रीटमेंट ही कविता को अलग करता है। सुधीर जी की इस कविता में इतिहास, स्मृति, संस्कृति, परिवर्तन और मूल्य- क्षरण एक केन्द्रीय विचार से आबद्ध हैं। इसी तरह वे हिंसा के भयावह रूप लिंचिंग को उस हिंसक मानसिकता के विकास के रूप में देखते हैं जो हत्या के कई तरीके अपनाती रही है। अकबर इलाहाबादी ने कभी कहा था, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो। वे इस विडंबना से हमारा सामना कराते हैं कि अब तो तोप वाले ही अखबार निकाल रहे हैं।

उनकी संवाद शैली देखिये-
प्रत्युत्तर के पहले उत्तर होता है
और उत्तर के पहले प्रश्न
और प्रश्न के पहले जिज्ञासा
इसी तरह सत्याग्रह से पहले सत्य था। गांधी ने इसका पुनर्संधान किया। इसी अर्थ में कवि कालयात्री है कि वह तमाम चीजों का एक अभिनव दृष्टि से पुनरावलोकन करता है। तानाशाह श्रृंखला कविताओं में पंक्तियाँ हैं- सच से भय खाता है तानाशाह और किसी भी भाषा में प्रामाणिक नहीं है तानाशाह की जीवनी। यहां क्षेपक और प्रक्षिप्तियों के समावेशन से कवि उसकी कथित विराटता की छवि को खंडित कर देता है। फिर कहता है कि उसका पोस्टमार्टम करने का कोई फायदा नहीं क्योंकि वहाँ ह्रदय और अश्रु- ग्रंथियों जैसे अवयव नदारद होंगे। ताकत के विमर्श का कविता इसी तरह प्रतिरोध कर सकती है। सामाजिक दूरी बनाये रखने और अलग-थलग रहने की एहतिहातों के इस समय में ये पंक्तियाँ देखें-
जब दूर तलक, दूर तलक, दूर तलक
कोई नहीं होता  हमारे आसपास
वहीं से शुरू होता है नरक, वहीं से
शुरू होती है नरक- यात्रा
इसके बरक्स कवि के यहां सात्विक क्रोध और गर्हित प्रवृत्तियों के लिए घृणा का समर्थन है। सूर्य की लालिमा और हमारी शिराओं में बहते रक्त का साम्य हमारी अंत: शक्ति है।

हाल की एक कविता में वे कोरोना को विश्व इतिहास के सबसे बडे सबक के लिए देखते हैं, अगर हम बाकई सीखना चाहें; इसने प्रकृति से मनुष्य के संबंध की गत्यात्मकता को देखने की नयी दृष्टि दी है। ऐसा नहीं कि सुधीर सक्सेना को बिंब और प्रतीकों से कोई परहेज है। उनकी सुंदरी शीर्षक कविता है-
तुम
समुद्र से नहाकर निकली
और पहाड को 
तकिया बनाकर
लेट गयीं
घास के बिछौने पर
अम्लान।
बेगम अख्तर तो व्यथित थीं कि बरसात में शराब नहीं बरसी, सुधीर की एक कविता में वारिस शराब की मानिंद बरसती है। प्रेम को  वे सातवीं ऋतु की संज्ञा देते हैं। जीवन के कई कार्य- व्यापारों में वर्जना की अपनी अहमियत होती है लेकिन प्रेम एक ऐसी शय है जो वर्जना को नहीं मानता। इसके मायने हैं कि प्रेम में स्वतंत्रता अंतर्भुक्त है। यह - उतना ही उद्दाम फूटता, जितनी ज्यादा विषम होती है परिस्थिति। आज तंत्र पानी से जुड़ी अनेक चीजों को बचाना चाहता है लेकिन दुर्भाग्य से उसे यह बोध नहीं है कि यदि पानी ही नहीं बचा तो फिर ये सब कैसे बचेंगी। बाजार और विज्ञापन के गठजोड़ के संदर्भ में मर्लिन मुनरो को याद करते हुए उनकी एक प्रभावशाली कविता है। चीजें उनके अस्तित्व मात्र से नहीं बल्कि विशेषण से अर्थवत्ता पाती है, उसने कहा, ये राष्ट्र है मगर वहाँ लोकतंत्र नहीं था।  और अंत में बच्चों को लेकर सुधीर जी की चिंता-
वे बचपन छीनते हैं
और बच्चों को मार देते हैं।

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