पूर्व-कथन
नीचे आप एक अखबार की कटिंग देख रहे हैं। इसमें तसवीर के साथ टिप्पणी में लिखा है कि जब अभिनेता इरफान जयपुर के अपने आरंभिक दिनों में नाटक महाभोज ( मन्नू भंडारी) में काम करने गये, तब तक इसकी कास्टिंग हो चुकी थी। लेकिन इरफान निर्देशक प्रदीप भार्गव के साथ नाटक करने के लिए इस कदर व्यग्र थे कि उन्होंने खुद अपने लिए नाटक में रोल गढ लिया और फिर उसे अभिनीत भी किया। इस अनुभव- आलेख में आप उन अल्प- चर्चित नाट्य- निर्देशक की कार्य- शैली को थोडा जान सकते हैं। अपने सरोकारों के लिए रंगमंच से जुडे प्रदीप भार्गव ख्यात अर्थशास्त्री हैं जिन्होंने प्रो विजयशंकर व्यास और ज्यां ड्रेज के साथ काम किया है। अष्टावक्र गीता का किया इनका भावानुवाद प्रकाशनाधीन है।
दूसरे, आप्रवासी मजदूरों की आवाजाही इन दिनों हमारी चिन्ता और चर्चा में रही है। आप जयपुर महानगर में ऐसे प्रवासी मजदूरों की जद्दोजहद की करीब पच्चीस साल पहले की कुछ झलक पा सकते हैं।
ये मार्च १९९४ की उतरती सर्दियों के दिन थे। इस पूरे महीने में इस नाट्य- अनुभव ने रूपाकार लिया। युवाओं का एक छोटा- सा समूह था। एक सरोकार था शहीद भगतसिंह के विचारों से खुद को जोडने का और वर्तमान समाज व्यवस्था में इन विचारों के सहारे हस्तक्षेप करने का। समूह के लोगों के सामने केवल दो चीजें थीं। एक तो यह कि जो ढर्रे के नाटक हैं, उनसे कुछ अलग तरह करना है। दूसरे, सिर्फ नाटक करने के लिए नाटक नहीं करना है। यह देखा गया था कि महानगर में रंगकर्मियों की कुछ निश्चित संस्थाएं हैं और एक सीमित निश्चित दर्शक- वर्ग है, जो थोडा घटता - बढता रहता है।
जब नाट्य- कार्यशाला के निर्देशन के लिए प्रदीप भार्गव के समक्ष यह प्रस्ताव आया तो उन्हें भी चुनौतीपूर्ण लगा। उच्च वर्ग और मध्यम वर्ग के छात्र- छात्राओं और युवाओ के साथ वे काम कर चुके थे किन्तु निम्न और निम्न मध्य वर्ग के युवाओं के साथ यह उनका पहला अनुभव था। ऐसे युवा लोग नाटक की ओर शौकिया रूप में नहीं आये। जो नाटक के व्याकरण से लगभग अनिभिज्ञ थे, जिनसे उस बौद्धिक भाषा में संवाद करना भी संभव नहीं था, जो रवीन्द्र मंच की सामान्य बोलचाल है। इस कार्यशाला को लेकर निर्देशक ने चिंतन- मनन करना शुरू किया और एकाएक इस कार्यशाला की शुरूआत के लिए उन्हें सूत्र मिल गया। यह थी मुक्तिबोध की कविता- बबूल। मुक्तिबोध रचनावली, भाग-१ में शामिल यह कविता साहित्यिक हल्के में कोई बहुत चर्चित नहीं है। लेकिन कार्यशाला में आरंभिक सोच- विचार की प्रक्रिया के लिए इस कविता की अन्तर्वस्तु केन्द्रक का काम कर सकने के लिए पर्याप्त थी।
....वह बबूल भी
दुबला, धूलभरा, अप्रिय- सा, सहज उपेक्षित,
श्याम, वक्र अस्तित्व लिए वह रंक तिरस्कृत,
अपमानों का मौन झेलता, चिर- अपमानित,
पथ के एक ओर चुपचाप खडा है।
फटेहाल जीवन की नंगी कठिन दीनता- सा जो वर्जित
वह बबूल है।
वृक्षों के अभिजात वर्ग की आंखों में वह सदा बहिष्कृत,
चिर- निर्वासित
उसके सदा तुच्छ से समझे जाने वाले
उस गहन ह्रदय में
गूढ आंसुओं में
वसंत के वासंती रंग चमक- चमक जाते हैं
बरबस
उभर-उभर उठती हैं अंतस्तल की छुपी लकीरें
... सूखा औ खुरदरा तना, वे काली डालें
ज्यों मेहनत के धूलभरे कर, काली टांगें
अपनी इस वसंत- श्री पर ही लज्जित
गूढ ह्रदय की चिर- सम्पन्न भावना नित ही अवनत-
... उस बबूल को देख
तुरत ही
युगानुयुग सन्तप्त प्रपीडित जनता की महानता के
वे ऊंचे-ऊंचे चित्र उभरकर
छा जाते मेरी आंखों में,
जिनके सम्मुख
देशकाल- व्यापी छाया सिद्धार्थ बुद्ध की भी
फीकी लगती है सचमुच।
एक अजस्त्र प्रयाण
युगों की छाती पर नंगे, बिबाइयों भरे
रुधिर- आलुप्त चरणों का,
जन- जन का, उनके प्राणों का,
मुझे जकड लेता है
काला स्याह नाग ज्यों चंदन की डाली को।
... आह! त्याग की उत्कट प्रतिमा होरी, महतो, भोली धनिया जाग रहे हैं,
काम कर रहे हैं अब भी खेतों में
उनकी श्वेत अस्थियों से इस युग का वज्र बनेगा भयंकर।
वह बबूल
जो चिर- निर्वासित,
एक प्रतीक बना है केवल जन-जन के नि:सीम त्याग का।
मेरी खिडकी से दिखती है
होरी की वह याद।
जवानी में आया है,
पीले फूलों को छिटकाता प्रिय बबूल वह,
अर्पण- व्याकुल, आत्म- चेतना में वह्रिल हो,
चाह रहा है मज्जित करना दिशा- कूल को
मुक्तिबोध की कविता को समूह में रखकर इस पर चर्चा करना मुश्किल था। समूह के लिए मुक्तिबोध का भाषा- विन्यास, प्रतीकार्थ और निहितार्थ काफी कठिन थे। इसलिए पहले दिन (१ मार्च १९९४) को बातचीत बबूल के पेड से शुरू की गयी। बबूल के बारे में हम अपनी बात कहें। किसी बस्ती के किनारे खडे बबूल के पेड की जिंदगी के बारे में सोचें। बातचीत में सामने आया कि बबूल सीधा- सादा और उपयोगी पेड है। यह बहुत कष्ट और उपेक्षा सहता है। समूह के लगभग हर सदस्य ने बबूल के पेड से अपना रिश्ता बना लिया। यह तय हुआ कि बबूल को लेकर कोई गीत रचा जाये। समूह के लोग दो हिस्सों में बंट गये। एक हिस्से द्वारा रचा गया गीत बच्चों द्वारा गाये जाने वाले प्रचलित गीतों की पैरोडी जैसा था। दूसरे हिस्से के लोगों ने कुछ नयी तरह रचा। सब लोगों ने मिलकर इसे थोडा परिमार्जित किया। गीत इस तरह है-
एक अकेला दूर तलक खडा हुआ है जंगल में
ले के फूल पत्तियाँ कांटे डटा हुआ है जंगल में
फूलों के सूने आंगन में तलाश रहा अस्तित्व बबूल
मैं असली हूं अकड के कहता मत आना मेरे चंगुल में
तपती भू सूखी माटी पर खडा हुआ है दंगल में
अपना सब कुछ लुटा रहा है जनहित में जन मंगल में
होली दीवाली दिन जमती नाच रही पूरी बस्ती
इसकी छालों का रस पीकर लोग आ गये मस्ती में
बबूल- गीत की सामूहिक ( कोरस ) धुन बनाना शुरू किया गया। इसके बाद कुछ दिन कार्यशाला की शुरूआत या समापन बबूल- गीत और नीरज के गीत- अब तो मजहब कोई ऐसा ही चलाया जाये... से होती। सायं छह- सात बजे सब लोग इकट्ठा होते और रात के दस- ग्यारह बजे जाते।
नाट्य- समूह के कुछ लोगों को इससे पूर्व की एक कार्यशाला का थोडा अनुभव था। जनवरी, १९९४ के शुरू में आयोजित उस नाट्य- कार्यशाला की निर्देशक थीं- सुष्मिता बनर्जी ( वे अब नहीं रहीं, नीचे दिया फोटो उन्ही का है।) उन्होंने संवाद, गीत, शारीरिक अभ्यास और समूह संरचनाओं के माध्यम से नाट्य- गतिविधियों को जोडकर काम कराया। इसके बाद लोगों से बेजान चीजों का अभिनय करने के लिए कहा गया। काफी नाट्य-अभ्यास कराने के बाद स्कूटर, जूता, टोपी, तरबूज, सीटी, डंडा और पेड- सात निर्जीव पात्रों को लेकर एक नाटक तैयार किया गया। इससे पूर्व संगीत के वाद्यों को लेकर एक छोटा नाटक खेला गया- साजों की व्यथा। लड़ाई और बाजार का दृश्य, संकरी जगह से निकलना और मेले का दृश्य समूह- संरचनाओं से खडे किये गये।
जनवरी में हुई इस दस- दिवसीय कार्यशाला के पूर्वाभ्यास का उद्देश्य था- कल्पना- शक्ति को विकसित करना, उन सीमाओं को तोडना- जिनसे पात्र बंधे रहते हैं क्योंकि निर्जीव वस्तु बनकर ही सजीव की बेहतर कल्पना हो सकती है। कल्पना शक्ति विकसित करना ही नाटक तैयार करना है। कार्यशाला के अंत में दो कहानियों का नाट्य- रूपान्तर किया गया। एक कबूतर जो जंगल में आग लगने पर और पक्षियों व जानवरों के कहने पर जंगल छोडकर नहीं जाता। वह अपने पंख भिगोकर लाता है और आग पर पानी छिडककर उसे बुझाने की कोशिश करता है। वर्षा शुरू हो जाती है, आग बुझ जाती है लेकिन कबूतर थक कर मर जाता है। दूसरी कहानी साबडसबडू नामक बालक की थी, जो धूल में खेलता रहता था। एक बार वह वारिस में भीग गया। उसने देखा कि एक गाय उसकी ओर दौडी चली आ रही है। वह घर भागा। उसकी माँ ने देखा कि वर्षा से साबडसबडू के पीठ पर जमी मिट्टी में हरी घास उग आयी थी। गाय इसी को खाने आ रही थी।( सुष्मिता जी की इन कहानियों को बाद में मायामृग ने बोधि प्रकाशन से इसकी बाल- साहित्य श्रृंखला में प्रकाशित किया। ) समूह ने कल्पना और नाटक के सम्बन्ध को समझ लिया। इसी पृष्ठभूमि में वे बबूल के प्रतीक को बेहतर आत्मसात कर सके।
कार्यशाला के दौरान यह विचार आया कि इस सांस्कृतिक समूह को कोई नाम दिया जाये। समूह की अपनी पहचान हो। अभी तक समूह का कोई नाम नहीं था। इसकी जरूरत भी शायद इसलिए अनुभव नहीं हुई क्योंकि समूह ने कोई सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं किया। समूह के अधिकांश लोग डेमोक्रेटिक यूथ फ्रंट और भगतसिंह अध्ययन केन्द्र से सम्बद्ध थे। काफी सोच- विचार के बाद नाम दिया गया- दखल यानी दमन के खिलाफ लड़ाई।
प्रदीप भार्गव ने गतिशील समूह- संरचनाओं के कुछ नाट्य- अभ्यास कराये। फिर हरेक के अनुभवों को आधार बनाकर कोई स्थिति अथवा घटना तय कर उसे अभिनीत करना बताया। इससे समूह के बीच एक अस्पष्ट और उलझा हुआ- सा कथानक उभरने लगा तथा नाटक आगे बढा। रोज- ब- रोज सब लोग इस पर चर्चा करते। सभी नाटक के कथाक्रम को वास्तविक जिंदगी के बरक्स रखकर इस पर अपनी राय देते। कार्यशाला के दसवें दिन १० मार्च तक नाटक ने काफी हद तक मुकम्मिल रूप ले लिया। तब गौतम नगर बस्ती में इसका प्रदर्शन कर दर्शकों की प्रतिक्रियाओं की समीक्षा की गयी।
नाटक को शीर्षक दिया गया- आखिर कब तक? इसके सभी प्रदर्शन निम्न वर्ग की बस्तियों में किये गये। गौतम नगर वाल्मीकि समुदाय की बस्ती है। इसके अलावा जगतपुरा और मालवीय नगर की कच्ची बस्तियाँ थीं। २३ मार्च की शाम को एक मशाल जुलूस के बाद जयपुर के गोपालपुरा मोड चौराहे पर इसका प्रदर्शन हुआ। इस प्रस्तुति के दर्शकों में डेमोक्रेटिक यूथ फ्रंट के स्थानीय व बाहर से आये कार्यकर्ताओं और भगतसिंह अध्ययन केन्द्र के साथियों के साथ जयपुर के अन्य बुद्धिजीवी- संस्कृतिकर्मी थे जिन्होने जुलूस में भी हिस्सा लिया था। इसके अलावा चौराहे पर इकट्ठा सैंकड़ों लोगों का हुजूम था जो वहाँ नाटक देखने के लिए रुक गये थे।
आखिर कब तक नाटक की केन्द्रीय समस्या है- गाँव से रोजगार के अभाव में पलायन कर शहर आये लोगों की जिंदगी की जद्दोजहद। जयपुर और इसके आसपास गाये जाने वाले एक श्रमिक लोकगीत के स्वरूप में रचित इन पंक्तियों में नाटक के शुरूआती कथानक का ताना- बाना व्यक्त होता है-
बैठ्या- बैठ्या गांवडा में कांई खाबैला
कैंया पालेला परिवार कमाबा शहर में चालां।
दस बीघा तो खेत म्हांके म्हें भाई च्यार
सोलहा तो म्हारे टावर होग्या बडौ हुयो परिवार। कैंया...
भैंरूजी के सवामणी में लाग्या रुप्या पांच हजार
बाणिया ने जमीं मांडली अब दैवे कोनी उधार।
रामू कोली सूत कातर लाम्बी थान बणाये
टेरालीन कौ फैशन चाल्यौ सूती पहने नांय।
माटी के बर्तनां की अब. थोडी रह गयी पूछ
चाली चमक अस्टील की अब करणों पडसी कूंच।
चामडा की जूती तो अब कोई ना पहरै
फैशन चमक- दमक कौ चाल्यौ जूता बाटा को पहरै।
जमींदार सूं काम मांगौ तो आंख्या घणी दिखाबै
देवे कोनी काम खेत में ट्रैक्टर खुदी चलाबै।
गोपाल लाल तो गाँव छोडर शहर जारयो छै
तू भी आजा गैंदा- फूल्या कमाबा शहर में चालां।
कैंया पालेला परिवार....
गाँव में परंपरागत कुटीर उद्योग- धंधे खत्म हो रहे हैं। शहरी उत्पादन पर गाँव आश्रित होकर रह गया है। खेती में जोत छोटी होती जा रहीं हैं। परिवार बढ रहे हैं। जिनके पास जमीन अधिक है, वे मशीनों का उपयोग कर रहे हैं। रोजगार के अवसर यहां समाप्त हो गये। अब शहर की ओर पलायन के सिवा कोई चारा नहीं।
शहर में लेकिन रोजगार कहां ? आज अगर काम है तो कल नहीं। गाँव के गीत यहां भूल जाओ। यहां अलग तरह के काम हैं जो सीखने ही पडेंगे-
चार. दिनां तो हो गये म्हाने अन्न खाया आज,
टावर- टींगर भूख्या मर रह्या न है कोई आस।
कांई लैगो रे गीतां में रोजगार कर लै,
सीखबा कौ सीखवौ धंधा कौ करिबौ,
कांई लैगौ रे गीतां में रोजगार कर लै।
ये किसी मिल या फैक्ट्री के श्रमिक नहीं हैं बल्कि शहर के किसी व्यस्त चौराहे ( चौखटी) पर मुंह अंधेरे काम की तलाश में आ जुटने वाले हुजूम का हिस्सा हैं। असंगठित क्षेत्र के इन मजदूरों की स्थिति अर्द्ध- बेकारी जैसी है। ये लोग फुटकर काम करते हैं या फिर ठेकेदारी- प्रथा में काम करने के लिए अभिशप्त हैं। ठेकेदार किसी काम का ठेका लेता है। वह मिस्त्रियों से संपर्क करता है। मिस्त्री मजदूर ले जाता है। आज उसे यदि दस लोगों की जरूरत है तो कल कम लोगों की। वह ठेकेदार से भुगतान प्राप्त करता है और मजदूरों का एक हिस्सा कई बार खुद हडप जाता है। बडे ठेकेदार मशीनों का प्रयोग करते हैं, इससे मानव-श्रम बेकारी की ओर धकेला जा रहा है। असंगठित क्षेत्र के मजदूर को जीवन- सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं।
आखिर कब तक का कथानक सब लोगों के इसी अवलोकन और विश्लेषण के आधार पर बुना गया। निर्देशक प्रदीप भार्गव ने इसे संयोजित किया। नाटक तैयार करने की प्रक्रिया में पूरा खुलापन था। यहां तक कि नाटक में सब लोगों के नाम भी वही रहे, जो वास्तव में उनके थे। केवल हितेन्द्र और पंकज के नाम बदले गये। सबने अपनी- अपनी भूमिकाएं सहज विकसित कीं। हितेन्द्र ने शुरू से ही एक वृद्ध का रूप अख्तियार कर लिया, वह बाबा हो गया। पंकज को किसी ने नाम दे दिया- खरबड, और यही उसका नाम हो गया। चरित्रों के विकास के साथ ही उनका पारस्परिक द्वंद्व प्रकट होने लगा और इसका प्रतिफलन घटनाओं में हुआ। घटना- क्रम नाटकीय मोड लेने लगा और सामूहिक विचार- विमर्श की प्रक्रिया से इसे अंतिम संरचना प्रदान की गयी। कथानक में चरित्रों और स्थितियों की टकराहट और अन्तर्विरोधों से नाटक की सृष्टि हुई।
आखिर कब तक में दोनों तरह के गीत हैं- यथार्थ को सीधे व्यक्त करने वाले और दूसरी ओर यथार्थ को प्रतीकात्मक रूप में प्रस्तुत करने वाले। नीरज का गीत- अब तो मजहब कोई ऐसा भी चलाया जाय... नाटक से पहले गाया जाता। यह दर्शकों के एकत्रित करने की प्रयुक्ति के तौर पर था। इसके बाद बबूल बने पात्र एक- एक कर बाहर निकलते और अपने संवाद बोलते। गोपाल इन्हें लोकगीत में ढाल देता और उसके स्वर में लोग अपना स्वर मिला देते। कार्यशाला के शुरू में रचा गया बबूल गीत एक मजदूर युवक मोहन की हत्या के बाद गाया जाता। मोहन ने ठेकेदार- गुंडा माफिया का विरोध किया था। इस गीत का नाटक में प्रतीकार्थ है। दो गीत समूह ने खुद चुने। एक रामकुमार कृषक का गीत है जिसके बीच- बीच में बाबा नागार्जुन के एक गीत का वाक्यांश- हो गये चौबीस महीने- टेक की तरह इस्तेमाल किया गया है। यह गीत गांवों से शहर आये असंगठित मजदूरों में बढते असंतोष और चेतना को अभिव्यक्त करता है -
हमें मिला जंगल बबूल का उन्हें फूल की बगिया,
राज संपदा बांट रहा है जन्मजात वो छलिया ।
मेरे घर में कांटे आये उनके घर में कुमकुम केसर,
मेरे घर में लहुलुहान है गंध लेप है उनके तन पर।
उनकी रानी बनी छबीली नंगी मेरी धनिया।
हाकिम उनके बडे चहेते उनकी गोटी लाल सब तरह,
अपना दरजा बहुत अलग है दो दरजों का अंतर है यह।
राम अयोध्या के राजा हैं मारा फिरै रमैया।
यह माया का नंदन वन है घुटता जाता है मेरा दम,
बरस रही है उधर संपदा इधर गरीबी का है आलम,
उधर महल में घुंघरू बजते इधर बिलखती कुटिया।
गीतों की धुनें नहीं थीं। इन्हें भिन्न तरह से प्रस्तुत किया गया ताकि दर्शक गीत में डूबें नहीं, गीत के कथ्य से आलोकित होती नाट्य- वस्तु और पात्रों के भाव- संकेतों को समझें। उक्त गीत का एक एक अंतरा अलग- अलग पात्र बोलते, हो गये चौबीस महीने पूरा समूह बोलता। दृश्य था देशी शराब के अड्डे का जहाँ दिहाडी मजदूर अलग अलग झुंडों में बैठे थे। नाटक के आखिर में कृष्ण कल्पित का गीत- राजा रानी प्रजा मंत्री... था जिसकी आखिरी पंक्तियों को कुछ बदल दिया गया था।
राजा रानी प्रजा मंत्री बेटा इकलौता,
मां से कथा सुनी थी जिसका अंत नहीं होता।
महलों में बिन पूछे कैसे आयी पुरवाई,
राजा ने दस बीस जनों को फांसी लगवाई,
राम राम रटता रहता था राजा का तोता।
मैं ने पूछा तो मां बोली केवल सुनता जा,
तुझे कहानी से मतलब है केवल गुनता जा,
समझ नहीं आता किसका था किससे समझौता ?
राजा राज किया करते थे राजा राज करे,
परजा भूख मरा करती थी परजा भूख मरे ,
अब तक ऐसे कथानकों का दर्द रहा ढोता ,
एक कहानी सुनीं उसी का अंत नहीं होता।
बबूल गीत और यह गीत पंकज द्वारा गाये गये। इस दौरान अन्य पात्र स्थिर रहे। इन गीतों में भी माइक या संगीत का जानबूझकर इस्तेमाल नहीं किया गया।
आखिर कब तक यथार्थवादी शैली में अभिनीत भिन्न तरह का नाटक था। इसे नुक्कड़ नाटक नहीं कहा जा सकता। यहां स्थितियों का सरलीकरण नहीं किया गया बल्कि उनका स्थिरीकरण किया गया ताकि दर्शक उन्हें समझ सकें। नाटक में यथार्थ की जटिलता से पलायन कर निष्कर्षों में जाने से बचा गया। जो नाटक में नहीं कहा जा सकता था, उसके लिए गीतों का सहारा लिया गया। और यह सब समूह के लोगों ने स्वयं किया। समूह के लोग शहर की अलग- अलग जगहों से आकर पूर्वाभ्यास के लिए इकट्ठा होते थे। गोपाल, प्रकाश और सीताराम हरिजन बस्तियों से आते। पंकज, विष्णु, जवाहर और घनश्याम भी काफी दूर से आते। हितेन्द्र, मोहन, मुंशी, राजू और देवेन्द्र जरूर आसपास रहते थे। यहां कोई पूर्वाभ्यास कक्ष नहीं था। टोंक फाटक क्षेत्र की घनी बस्ती के बीच एक आधे बने घर के बाहर का धूल भरा मैदान था और बातचीत नजदीक के एक छोटे कमरे में होती थी। घर के मालिक दीपक सैनी और उनकी पत्नी सुमन व्यवस्थाएं जुटाते। लेकिन समूह के सभी सदस्य पात्रों में बदल गये थे। ऐसा नहीं था कि वे अभिनय में कोई इतने डूब गये थे कि अपना स्वत्व भुला बैठे हों। बल्कि स्वयं और पात्र के मध्य की खाई पाटकर और पात्र के रूप में अपने चरित्र और भूमिका को तार्किक आधार पर विकसित कर उन्होंने यह सब किया। इसीलिए उनका अभिनय स्वत: स्फूर्त होता था और संवाद भी कोई तयशुदा नहीं थे। यहां तक कि सब अपनी क्षेत्रीय बोली बोलते थे। सबकी अलग- अलग बोलियाँ शहर में अलग- अलग क्षेत्रों से आये कामगारों का आभास देती थीं। कामगारों का शहर में बना एक नया समाज ।
यह देखा गया कि सरलीकरणों की ओर जाने की प्रवृत्ति को सचेत रूप से ही रोका जा सकता है। शुरू में ही जब ठेकेदार और मिस्री की मिली- भगत से मजदूरी कम मिली तो मजदूरों में से एक नेता चुनने की बात आयी। नेता चुने जाते ही नाटक चालू कथानक की ओर मुडने लगा। तब यह प्रतिप्रश्न रखा गया कि क्या वास्तव में ऐसा होता है। तब हुआ यह कि मिस्त्री के छंटनी करने पर एक दो लोग कहते रहे कि या तो सब काम पर जायेंगे अथवा कोई नहीं जायेगा। लेकिन यह बात चली नहीं और कुछ लोग काम पर चले गए। भुखमरी प्रतिरोध के अवसरों को दबा देती है।
इसी तरह यथार्थ में से ही हास्य और विडम्बना के दृश्य निकलकर आये। विष्णु के साथ आया उसका गाँव का साथी गंग्या शहर में कहीं भटक गया। वह अक्सर गंग्या को पूछता रहता। बाद में लोग उसे झिडकने लगते और हंसते। दर्शक भी इस पर हंसते। जब मृत मोहन का शव अंधेरे रास्ते में पडा था तो विष्णु ने इसे गंग्या समझ कर टटोला। पुलिस ने उसे हत्या के संदेह में धर दबोचा। मोहन भैंरूजी का भक्त था और गाँव में भैंरूजी के सवामणी के कारण ही बर्बाद होकर शहर आया था। यहां भी उसने एक पत्थर रख लिया भैरूं के रूप में। लोग उसे बातों - बातों में भैरूं का नाम लेकर चिढाते तो वह उत्तेजित हो जाता। दर्शकों के लिए यह हास्य का अच्छा प्रसंग था। इसी तरह राजू की जब ठेकेदार व मिस्री से कहा- सुनी हो गयी, वह एक चप्पल हाथ में लिए घूमता रहता। मिस्त्री उससे मिन्नत कर चप्पल नीचे रखवाता। यह दृश्य राजू के गुस्से का ही इजहार नहीं करता था बल्कि दर्शकों में हंसी की लहर पैदा कर देता था। आखिर कब तक में मोहन विरोध के बदले अपनी जान गंवा देता है। विष्णु उसकी मौत के इल्जाम में झूंठा फंस जाता है और राजू को भी विरोध करने के कारण पुलिस पकड ले जाती है। यह असंगठित मजदूरों के दमन और प्रतिरोध का सतत् चक्र है। नाटक की इस अन्तर्वस्तु की अभिव्यक्ति के उपक्रमों ने समूह में समाज की मौजूदा संरचना, ग्रामीण आर्थिकी, शोषण के संस्तर और इन सबके कलात्मक रूपान्तरण को लेकर जीवंत बहसों को जन्म दिया। भगतसिंह के सोच- विचार को प्रासंगिक मुद्दों से जोडकर देखने में चिन्तन की इस प्रक्रिया ने पृष्ठभूमि का काम किया। इस तरह भी यह सिर्फ एक नाटक नहीं था। जहां-जहां नाटक खेला गया, वहाँ समूह के सदस्य रहते थे, इन बस्तियों में भी एक संवाद प्रक्रिया शुरू हुई।
इसमें कोई संदेह नहीं कि यह सब निर्देशक प्रदीप भार्गव की क्षमताओं के कारण संभव हुआ। रंगमंच एक समूह की कला है। इसमें जनतांत्रिक तौर-तरीके अपनाना और फिर जनतांत्रिक सोच- विचार को उत्प्रेरित करते हुए नाटक खडा करना मामूली चुनौती नहीं है। प्रदीप ने इसे बहुत सहजता और आत्म- विश्वास से किया। कार्यशाला में उनकी भूमिका प्रत्यक्षत: एक सूत्रधार से भी कम और एक पर्यवेक्षक से कुछ अधिक थी। लेकिन कम से कम हस्तक्षेप के बावजूद पूरी प्रस्तुति का श्रेय तो उन्ही का है क्योंकि हस्तक्षेप की स्थिति नहीं आयी तो यह भी निर्देशक की सफलता है। उन्होंने एक समूह के एक- एक सदस्य की अन्तर्निहित संभावनाओं को प्रकट होने और उनकी कलात्मक अभिव्यक्ति को पूरा अवसर दिया। इस नाटक में केवल ब्रेख्त के ऐलिएनेशन इफेक्ट से काम नहीं चलना था। कुछ और किया जाना भी अपेक्षित था और प्रदीप ने यह कुछ और भी किया। इस नाटक में दर्शक निष्क्रिय भोक्ता नहीं रहता, वह इसमें शामिल हो जाता है और यह नाटक उसे भी आईना दिखाता है कि वह अपनी स्थिति का तार्किक आकलन कर ले। लेकिन महानगर के तयशुदा दर्शकों के लिए ये सब अभिप्राय शायद बेमानी होते।
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