पूर्वकथन : यह टिप्पणी आउटलुक संपादक नीलाभ मिश्र ने धार्मिक मठाधीशों के बढते वर्चस्व पर मनीषा भल्ला की रिपोर्ट के साथ छापने के लिए मांगी थी। मेरी इस किताब की प्रतियां अब उपलब्ध नहीं हैं। मैं इसके नये संस्करण पर काम कर रहा हूं।
....धर्म की बदल रही प्रकृति
आधुनिक युग में किसी देश के अंदर मुख्यतः चार तरह की सत्ताएं पायी जाती हैं। ये हैं : राज- सत्ता, अर्थ सत्ता, समाज सत्ता ( भारतीय संदर्भ में जाति- समुुदाय और इनके जातिगत संगठन) और धर्म सत्ता। इन. शक्ति केन्दों का प्रभाव घटता- बढता रहता है और एक केन्द्र दूसरे को प्रभावित करता है। यह एक निर्विवाद तथ्य है कि लोकतान्त्रिक प्रणाली के विकास में पूंजीवादी उभार की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह भी माना जाता है कि उदार लोकतंत्र में पूंजीपति जन- प्रतिनिधियों को अपने हित में प्रभावित कर सकते हैं।
भारत का संविधान लोकतंत्र के मूल्यों और विकेन्दित शासन प्रणाली को सर्वोच्च अहमियत देता है। आजादी के आरंभिक दशकों में देश में लोकतान्त्रिक संस्थाओं की नींव रखी गयी, विकेन्द्रित प्रणालियों का विकास हुआ और धर्म निरपेक्षता के विविध मूल्यों को अपनाया गया। किन्तु देश में ऐसी शक्तियाँ भी रही हैं जो लोकतंत्र के बजाय अधिनायकवाद को श्रेष्ठ मानती हैं। ये एक विशेष धर्म और उससे सम्बद्ध कुछ जातियाें की श्रेष्ठता में विश्वास करती हैं और धर्म को ही संस्कृति का प्राण- तत्व व राष्ट्र की पहचान मानती हैं। विगत वर्षों से इन शक्तियों के प्रभाव में लगातार बढोत्तरी होती गयी है और अपने रणनीतिक चातुर्य से इन्होंने सत्ता हासिल कर ली है। चूँकि इनकी शक्ति वृद्धि का आधार धार्मिक उन्माद की लहर है, अतः इनके कारण धर्म- तंत्र को जबरदस्त ताकत मिली है और यह एक समानांतर सत्ता के रूप में उभरा है।
मेरी पुस्तक धर्मसत्ता और प्रतिरोध की संस्कृति पिछले दशकों में हुए धर्मसत्ता के उभार के कारणों का विश्लेषण करते हुए इसके प्रतिरोध के कारगर तरीके सुझाती है। इस पुस्तक के अनुसार धर्म भी संस्कृति का ठीक वैसा ही घटक है जैसे कि भाषा, शिक्षा, मीडिया और साहित्य व कलाएं हैं। संस्कृति की तरह ही धर्म में भी पूजा- पाठ और अनुष्ठानों जैसी दृश्यमान चीजें हैं तो अध्यात्म, विश्वास और अनुभूति जैसी अदृश्य चीजें भी हैं। इसलिये धर्म का मामला संवेदनशील है और इसके प्रति निषेधवादी रवैया उचित नहीं ठहराया जा सकता। पुस्तक में धार्मिकता और सांप्रदायिकता के भेद को स्पष्ट किया गया है।
हिन्दू धर्म की संरचना और ईश्वर की अवधारणा का गंभीर विवेचन करते हुए पुस्तक में हिन्दू धर्म की बहुदेववादी पारम्परिक प्रकृति के विपरीत साम्प्रदायिक आधार के चलते उसके एकेश्वरवादी ध्रुवीकरण की पडताल की गयी है। साथ ही, ईसाइयत और इस्लाम के वैश्विक ध्रुवीकरण के बरक्स प्रवासी भारतीयों के धार्मिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया का विस्तार से विवेचन है। इसमें यह स्थापना रखी गयी है कि किसी भी एक धर्म का साम्प्रदायिकरण अन्य धर्मों की सांप्रदायिकता को बढावा देता है। इससे वैमनस्य और हिंसा को बल मिलता है।
सांप्रदायिकता अपनी प्रकृति में ही लोकतंत्र विरोधी है। पुस्तक में साम्प्रदायिक राजनीति की निर्मम पडताल करते हुए भारत में हिन्दू और मुस्लिम कट्टरवाद के पनपने और लोकतांत्रिक संस्थाओं के क्षरण पर गंभीर चिंता व्यक्त की गयी है और मैं ने धर्म के साथ फलते- फूलते बाजार और नये धार्मिक नेताओं के कारोबार का तथ्यात्मक तथा विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है।
( आउटलुक, १-१५, दिसम्बर, २०१४)
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें