मराठी के ख्यात लेखक जयवंत दलवी का एक प्रसिद्ध उपन्यास है जो हिन्दी में घुन लगी बस्तियाँ शीर्षक से अनूदित होकर आया था। अभी मुझे इसके अनुवादक का नाम याद नहीं आ रहा लेकिन मुम्बई की झुग्गी बस्तियों की पृष्ठभूमि पर आधारित कथा के बंबइया हिन्दी के संवाद अभी भी भूले नहीं है। बाद में रवीन्द्र धर्मराज ने इस पर फिल्म बनायी- चक्र, जो तमाम अवार्ड पाने के बावजूद चर्चा में स्मिता पाटिल के स्नान दृश्य को लेकर ही रही। बाजारू मीडिया ने फिल्म द्वारा उठाये एक ज्वलंत मुद्दे को नेपथ्य में धकेल दिया। पता नहीं क्यों मुझे उस फिल्म की तुलना में उपन्यास ही बेहतर लगता रहा है। तभी से मैं हिन्दी में शहरी झुग्गी बस्तियों पर आधारित लेखन की टोह में रहा हूं। किन्तु पहले तो ज्यादा कुछ मिला नहीं और मुझे जो मिला, वह अन्तर्वस्तु व ट्रीटमेंट दोनों के स्तर पर काफी सतही और नकली लगा है।
ऐसी चली आ रही निराशा में रजनी मोरवाल के उपन्यास गली हसनपुरा ने गहरी आश्वस्ति दी है। यद्यपि कथानक तो तलछट के जीवन यथार्थ के अनुरूप त्रासद होना ही था। आंकड़ों में न जाकर मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि भारत में शहरी गरीबी एक वृहद और विकराल समस्या है। देश में नवें दशक से आर्थिक उदारीकरण के बाद शहरीकरण सरकारों की प्राथमिकता में आ गया था और उस पर जोर दशकवार बढता गया है। किन्तु शहरी मलिन बस्तियों में अमानवीय जीवन गुजारते लाखों- करोड़ों लोगों की आपराधिक अनदेखी की जाती रही है। चूंकि गाँव अर्थ व्यवस्था के केन्द्र नहीं रहे, तो वहाँ से विस्थापन का एक नया सिलसिला शुरू हुआ जिसने शहरी गरीबों की संख्या में गुणात्मक वृद्धि की है। यही नहीं, शहरों में नियोजन और सौंदर्यीकरण के नाम पर इन बस्तियों को उजाडा और उखाडा जाता रहा है। यह किसी एक शहर की नहीं बल्कि देश के हर महानगर की दास्तान है। इन बस्तियों में रहने वाले जैसा जीवन व्यतीत कर रहे हैं उसे हमारे समय के एक बड़े चिंतक जोहान गाल्टुंग ने संरचनागत उत्पीड़न और हिंसा कहा है।
मैं ने रजनी मोरवाल की कोई कहानी नहीं पढी हालांकि उनकी चर्चा सुनी है। यह उपन्यास एक मलिन बस्ती में घटित कथा के रूप में शहरी सबाल्टर्न तबके की माइक्रो स्टडी है। इसका यह मतलब नहीं कि अपनी अन्तर्वस्तु और औपन्यासिक विन्यास की आवश्यक शर्तों को यह कृति पूरा नहीं करती। बल्कि अपने सहज कथा प्रवाह, अनुभव निसृत संवादों और गहरे भाव- बोध के चलते ही यह अपने बड़े मकसद तक पहुंचती है।
उपन्यास के केन्द्र में गली हसनपुरा का कुंजडा समुदाय है जिसे रचनाकार ने दलित तबके के बतौर लिया है। ( पता नहीं हमारे दलित साहित्य वाले इन्हें इस श्रेणी में मानेंगे या नहीं। ) कुंजडे चंद ऐसे पेशेवरों में शामिल हैं जो हिन्दू और मुस्लिम दोनों समुदायों में पाये जाते हैं और दोनों ही जगह अधीनस्थ श्रेणियों में शुमार हैं। किन्तु हिन्दू कुंजडों की स्थिति एक मामले में ज्यादा विडंबना जनक है। जब कुंजडा बाडी में आग लग जाती है तो बेघर हुए मुस्लिम कुंजडों को बाकायदा मस्जिद में शरण ही नहीं मिलती बल्कि खाना वगैरह भी मिलता है। दूसरी ओर एक बेघर हिंदू कुंजडा परिवार रात को मंदिर के बरामदे में सो जाता है तो सुबह पुजारी उन्हें मंदिर को अपवित्र करने के लिए कोसते हुए भगा देता है। कुंजडे सब्जी- तरकारी बेचने का काम करते हैं लेकिन माली नहीं हैं। असल में माली एक भूस्वामी कौम है जो फूल- फल- सब्जी के उत्पादन से जुड़ी रही है। जबकि कुंजडे एक परजीवी कौम है जो इन उत्पादों के विपणन पर निर्भर है। इस तरह यह एक दलित उपन्यास है किन्तु लाउड और सरलीकृत नहीं है।
इस कृति का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष स्त्रियों के संदर्भ में है। सर्वविदित तथ्य है कि यदि वंचना है तो स्त्रियाँ दोहरे उत्पीड़न का शिकार होंगी। उपन्यास में मीरकी उर्फ मीरा, उसकी माँ, अपाहिज बहिन सतुनी, कामिनी और पढाई का लालसा रखने वाली लेकिन स्कूल डापआउट सुरभि की व्यथा और अन्तर्कथाएं हैं। लेकिन न तो उपन्यास का कथानक सरल- रैखिक है और न ही कोई चरित्र इकहरा है। वहाँ प्रेम का अर्थ दुख और जिम्मेदारियां बांटना है। रचनाकार की अपने पात्रों से संलग्नता सर्वत्र प्रतिबिंबित है। उपन्यास उनके जीवन की तरह जटिल, मटियाला, जिजीविषा और रागपूर्ण तथा त्रासदी के दुश्चक्र से जूझने की मार्मिक गाथा है। अंत में यह कि हमारे लेखकों को राजनीति के विद्रूप और प्रक्रियाओं को कुछ और बेहतर समझने की जरूरत है।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें