सुमन केशरी की कविताओं के संदर्भ हमारे धूसर वर्तमान, प्रश्नाच्छादित अतीत और आशंकित भविष्य से उलझे हुए हैं। उनके यहां सांस्कृतिक स्मृतियाँ बारंबार आती हैं जो हमारे मिथकों में दर्ज हैं और जिनका वे वर्तमान के प्रसंग में प्रत्याख्यान करती हैं। एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में परिदृश्य के विस्तृत और कई बार अपरिभाषेय फलक को वे अपनी कविता में एक स्त्री के नजरिये से देखती- परखती हैं। उनके संकलन- पिरामिडों की तहों में तथा मोनालिसा की आखें- की कविताओं से गुजरना अपने आप में एक उद्वेलनकारी अनुभव है।
ये दिन पिरामिडों की तहों में गुजरते दिन हैं... कवि की यह प्रतीति किसी को अतिरंजित लग सकती थी लेकिन महामारी की मौजूदा आपदा और इससे निपटने में भारी असफलताओं ने इसे एक भयावह वास्तविकता बना दिया है। यहीं से एक लंबी कविता- श्रृंखला आरम्भ होती है, जो असल में एक विराट फंतासी है और संकलन के आखिर में ही समाप्त होती है। इसी के उत्तरार्द्ध में जो कविता किंचित भिन्न और खुली लग रही हैं, वे भी
फंतासी के उसी संसार की किसी ऊपरी सतह पर घटित हो रही हैं। कविता पिरामिड की दुनिया के जिस अंत: क्षेत्र में ले जाती है, वह रहस्य, लोमहर्षक दृश्यों और हारर फिल्मों जैसे अनुभव से गुजरना है। यह स्वाभाविक सवाल उठता है कि इस फंतासी का निहितार्थ क्या हो सकता है।
मुझे लगता है कि कवि ने इस फंतासी के माध्यम से सामाजिक आभ्यंतर की सामान्य मानसिकता और उसके अवचेतन की टोह लेने की कोशिश की है। मुक्तिबोध की ब्रह्म राक्षस और अंधेरे में जैसी रचनाओं को डिकोड करने में कार्ल जुंग जैसे मनो- विश्लेषकों के सिद्धान्तों की मदद ली गयी है। जुंग ने स्वप्नों का गहन विश्लेषण करके मनो- जगत को समझने की कोशिश की थी। इतना तो साफ है कि सुमन केशरी इन मायावी वर्णनों से हिंस्त्र व क्रूर मनोवृत्ति का आभास रचती हैं जो अपनी प्रकृति में मुक्तिबोध के वृत्तान्तों से भी डरावना और हाहाकारी है। यहाँ भय और केवल भय है हालांकि आत्माएँ जाग रही हैं। कैद आत्माएँ, प्रेत और ममियां हैं। इस द्वेष- काल में हर अन्य को शत्रु मान सब घात लगाये बैठे हैं। इस इन्द्रजाल में सभी खजाने के लोभ में फंसे हैं और उनकी अन्तर्रात्मा खो गयी है। इस मृगतृष्णा के जागरण में किसी को नींद जैसी नींद नहीं आती। वे आकांक्षाओं की अंधेरी कब्र में पडे हैं।
लोगों को इन अमानवीय स्थितियों में डालने वाली शक्तियाँ तुमुल कोलाहल के साथ अपने छलावे लेकर आती हैं। ..वे जब भी आये, सफेद पंखों वाले हंसों के वेश में आये। ...सामान्य - जन मर्मान्तक अनुभवों से गुजरता है हालांकि दिखता सामान्य है। घर सुनते ही वह अपने भीतर सिमट जाता था, मानो वही उसका घर हो। कोई आत्महत्या करता है तो सब कुछ के लिए वही दोषी होता है जबकि बाकी- परिवार, समाज और राज्य उसके प्रति हर जिम्मेदारी से बरी हो जाते हैं। सपने अब जागरण की गठरी में कैद है।... अब सपने में भी सांस ले पाना दूभर था....।
सुमन केशरी उक्त परिघटना में स्त्री की अवस्थिति का काव्यात्मक आख्यान प्रस्तुत करती हैं। इन कविताओं में मां अनेकश: और विविधरूपा आती हैं जो वस्तुत: मातृत्व के विराट अर्थ को द्योतित करती हैं, जोकि स्त्रीत्व की मूल- प्रकृति है। एक शोकगीत श्रृंखला के जरिए सुमन जी ने मातृत्व और वात्सल्य का अद्भुत चित्रण किया है। तू विस्मृति में स्मृति है मां- शीर्षक कविता बिल्ली के ऐसे नवजात शिशुओं पर लिखी गयी है जो अपनी माँ से बिछुड गये। जो एक- दूसरे में और तदनन्तर उन्हें संभालने वाली ( कवि) में अपनी माँ को खोजते हैं। जब एक बड़ा बच्चा मर जाता है तो उन्हें संभालने वाली ( कवि) एक मां की तरह ही आकुल- व्याकुल होती है। यह शोकगीत थामस ग्रे की एलेजी आन दि डेथ आफ ए कैट की याद दिला देती है जो उन्होंने अपनी प्यारी बिल्ली के मछलियों के टब में डूब जाने पर लिखी थी। हिन्दी में शोक- गीतों की वैसी परंपरा नहीं है। निराला जी की सरोज- स्मृति ही हमारे पास एकमात्र महान शोकगीत है।
घर को लेकर एक छोटी- सी किन्तु अर्थवान कविता है-
तिनके बटोर रखने पर भी
घर घर नहीं बनता
चोंच के स्पर्श बिना
और विडम्बना यह है कि पुरुष घर छोडता है तो वैरागी लेकिन स्त्री घर छोडे तो पतिता कहलाती है। घर से निष्कासन भी स्त्री का ही होता है भले ही वह सीता हो। स्त्री का कोई घर नहीं होता। इन कविताओं में सुमन जी स्त्री की इयत्ता को विभिन्न आयामों में निरूपित करती हैं। मां की तरह ही उनकी कविताओं में बेटी भी बहुत आती है और कई बार यह चिड़िया के रूपक के साथ है। राजस्थानी लोकगीतों में भी बेटी को चिडकोली ( नन्हीं चिड़िया) ही कहा गया है। बेटी स्त्री की आगत पीढी की ही प्रतिनिधि है। अजन्मे बच्चे की शोकान्तिका भी उल्लेखनीय है। स्त्रियों के सांस्कृतिक अनुकूलन और मतारोपण की अनवरत् प्रक्रिया ने उन्हें अनात्म बना दिया है। सुमन जी ऋत और पंच- तत्वों के संदर्भ से समता के विमर्श को एक दार्शनिक रुख देती हैं। स्त्री- जो फीनिक्स पक्षी की तरह अपनी ही राख से फिर जन्मती है- पुनर्नवा।
मोनालिसा की आंखें संकलन की कविताएँ हमारे बाह्य और आभ्यन्तर को और सूक्ष्मता से सामने लाती हैं। मोनालिसा कविताओं में हम खुद को कलाकृति के दृश्य बिम्ब से इतर मोनालिसा और लियोनार्डो के मन की दुनिया की पडताल करता पाते हैं। यहाँ भी मां, उनकी स्मृतियाँ और बेटी हैं- सघन भाव- प्रवणता के साथ। शिला को अहिल्या में बदलता राम का कवि- मन है- करुणासिक्त। पूर्वज हैं, जिनके लिए निर्मल वर्मा कहते थे कि भारतीय अपने ( मृत) पूर्वजों के साथ रहते हैं- पर्व, त्यौहारों और उल्लास के अवसरों में उन्हें शामिल करते हुए। इसी संकलन में एक कविता है- कूक नहीं.... एक विकल चीख, जोहती, पुकारती, जाने किसे?.... उस बियावान में.... । यह कविता राबर्ट ब्रिजेज की प्रसिद्ध कविता नाइटेंगिल्स को प्रतिध्वनित करती है जिसमें वे कहते हैं कि वे ( नाइटेंगिल) गा नहीं रहीं बल्कि अपनी पीड़ा को अभिव्यक्त कर रही हैं। क्या इसका कुछ संदर्भ स्त्रियों द्वारा गाये जाने वाले गीतों की हालिया सांस्कृतिक व्याख्याओं से नहीं जुडता है ? मछली, उसकी पनीली आंखें व इसके कंट्रास्ट में रेगिस्तान भी इनकी कविता में मोटिफ की तरह आते हैं। मछली शीर्षक कविता है-
उसने कहा
मछली
करती है पानी से प्रेम
मछली नहीं जानती प्रेम
वह तो बस जीती
पानी में
मरती है पानी में
क्या तुमने
पानी के बाहर
कभी
मछली को मछली- सा देखा है?
सपनों को लेकर दोनों संकलनों में कविताएँ हैं जो स्त्री- प्रश्नों के संदर्भ में खास मायने रखती हैं। मणिकर्णिका श्रृंखला भूलने वाली नहीं है और यहां भी उन्हें हरिश्चंद्र की प्रतिच्छाया और अपने बेटे रोहिताश्व को पुकारती तारामती की पुकार की अनुगूंज सुनायी पडती है। अंत में मोनालिसा... संकलन की आखिरी कविता- औरत- कि किस तरह वह रचती है एक वितान-
रेगिस्तान की तपती रेत पर
अपनी चुनरी बिछा
उस पर लोटा भर पानी
और उसी पर रोटियां रख कर
हथेली से आंखों को छाया देते हुए
औरत ने
ऐन सूरज की नाक के नीचे
एक घर बना लिया।
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