कलाकार की अनुभूति एक कुंवारी अनुभूति होती है, वह विशिष्ट होती हैं, उसका कोई वर्ग नहीं होता।
बर्गसां के मत में कला का ध्येय वस्तुओं और प्राणियों के भीतर निहित अंतः सत्य का उद्घाटन करना है। सत्य वह नहीं है जो इन्द्रिय अथवा बुद्धिगम्य है। हमारी ज्ञानेंद्रियां वस्तु का केवल सतही ज्ञान प्राप्त कर सकती हैं। इन ज्ञानेंद्रियों से प्राप्त संवेदनों के ढेर पर कार्य करने वाली बुद्धि की भी ऐसी ही परिसीमा है। इस जगत का सतत् प्रवाहमान सत्ता का स्थिर- जड रूप में प्रतिभासित होना, हमारे सामान्य प्रतिबोधन ( perception) तथा बुद्धि की परिसीमाओं का ही परिणाम है।
हमारी आंख का यह स्वभाव है कि वह यथार्थ या प्राणी को अंगों के संकलन के रूप में देखती है, उसके संश्लिष्ट जीवंत रूप में नहीं। वह वृक्ष को तने, डाली, पत्ते, फूल और फल में विभक्त करके देखने की आदी है क्योंकि यह एक बार में एक ही संवेदन ला सकती है। इस प्रकार वृक्ष का वह संश्लिष्ट रूप जो उसके विविध अंगों की एकता के सूत्र को संभाले हुए है, वृक्ष का जो वृक्षत्व है, वृक्ष की जो आत्मा है, भेदों की तह में अभेदता का जो धागा है, उसे हमारी आंख ग्रहण नहीं कर पाती।
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