एक अदृश्य आतंक के साथ असहायता और अवसाद इन दिनों की अन्य प्रतीतियां हैं। ऐसे में अध्ययन, मनन और लेखन में वैसा कुछ भी कर पाना मुश्किल होता है जो आप सामान्य जीवन में सहज रूप से कर पाते हैं। फिर पढने के लिए पुरानी किताबों में से कोई ढूंढ रहा था कि एक पतले से उपन्यास पर नज़र पडी- कोई वीरानी सी वीरानी है...। दृश्य वीरानी के इन दिनों में विजय मोहन सिंह का करीब सौ पृष्ठों का यह उपन्यास पढ डाला।
१९९८ में राधाकृष्ण प्रकाशन से छपे इस प्रयोगशील उपन्यास के लिए स्वयं विजय मोहन सिंह ने बताया है कि इसे बहुत पहले लिखना शुरू किया था लेकिन यह बाधित और स्थगित होता रहा। उनके अनुसार... इसे परंपरागत कथा शैली में लिखा गया निजी अनुभवों का दस्तावेज ही समझना चाहिए... । लेकिन इसमें काफी नयापन है जिसकी चमक अभी तक बरकरार है। विजय मोहन सिंह को एक कथा आलोचक के रूप में बड़ी पहचान मिली और उनका कथा लेखन लगभग अचर्चित ही रहा। मुझे याद है कि यह उपन्यास कुछ चर्चा में रहा था ,उसमें क्या बातें खास रहीं यह याद नहीं है।
कोई वीरानी सी वीरानी है... व्यक्ति के भीतर की
वीरान बल्कि बंजर दुनिया की टोह लेती कथा है। विजय मोहन सिंह का अवलोकन तलस्पर्शी है और उनके पास सम्मोहक कथा भाषा है। यह वीरानी किसकी है? दिल की, दिमाग की या एक पूरे परिवेश की? वस्तुत: यदि वीरानगी आपके भीतर उतर गयी है तो बाहर भी फिर वीराना ही नजर आता है। अन्तर्वस्तु के इस ट्रीटमेंट में उत्तर - नयी कहानी दौर के बहुचर्चित अकेलेपन, कुंठा और संत्रास से सामान्यताएं मिलती हैं। फिर भी विजय मोहन सिंह अपने समय को अतिक्रमित करते हैं। यह नवें दशक के आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण से ठीक पहले तक का समय है । तब तक मध्य वर्ग अपने नैतिक पतन का औचित्य व्यक्तिगत स्वातंत्र्य में ढूंढता था तथापि यह एक अपराध- बोध से ग्रस्त रहता था। आने वाले समय ने उसे इस बोध से मुक्त ही नहीं उन्मुक्त कर दिया।
कथा में तीन मुख्य पुरुष चरित्र हैं जिनमें नैरेटर विवेक भी एक है। वह अपने दोनों मित्रों को सफल और पतित होते देखता है। विडंबना यह है कि वह अपने जीवन में आदर्श आचरण से उत्पन्न मित्र- विहीन अकेलेपन और संघर्ष से गुज़रता है। यह समय था जब कला भी एक निरर्थक उपक्रम में अपघटित होने लगी थी। ऐसा काल जिसमें बंजरता जीवन के हर क्षेत्र को अपनी चपेट में ले रही थी। जबकि ऊंघते हुए कस्बे करवट बदलने लगे थे और शहरों का कायान्तरण हो रहा था। कथा नायक विवेक को अन्ना केरेनिना की प्रारंभिक पंक्तियाँ याद आती हैं- सुखी परिवार सब एक जैसे होते हैं।... ऐसा हर सुख नष्ट होने के लिए होता है- विवेक सोचता। उस दौर का अहसास है, हम ज्यादातर दूसरों के साथ ही अकेले होते हैं।... प्रत्येक निकटता विरक्ति उत्पन्न करती है, और दूरी विस्मृति!....बाहर एक सामूहिक दबाव ही हमें आगे धकेलता रहता है हमारे अपने अस्तित्व के विरुद्ध!... हम किसी जगह में नहीं रहते, हमेशा एक समय में रहते हैं।
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