आनंद संगीत ( जन्म 6 मार्च, 1956) की समकालीन कविता में सक्रियता और उपस्थिति जैसे अलक्षित रही, वैसे ही उसके चले जाने पर न कोई शोक- सभाएं हुई और न ही स्मृति- लेख लिखे गये। उसने साहित्य के शिविरों से सदैव एक दूरी बनाये रखी हालांकि कोटा जैसे शहर में दोनों ही तरह के साहित्य समूहों की खासी धमक और हैसियत है। आनंद संगीत के लिए अपने जीवन और सृजन के बीच भी ऐसा ही अंतराल रहा जिसे पाटने के लिए वह अपने को कभी अनुकूलित नहीं कर पाया। अपनी कविता के दुनिया में खोये रहने वाला आनंद निरंतर अकेला होता गया। मैं जब पहली और आखिरी बार उससे मिला, उससे कविताएँ सुनी तो उसे उनमें ही खोये हुए पाया। आस्कर वाइल्ड कहा है : सब कलाओं की अपनी सतह और अपने चिन्ह होते हैं। जो लोग इस सतह के नीचे चले जाते हैं, वे इस खतरे के उत्तरदायी स्वयं ही होते हैं। अंततः आनंद ने यह जोखिम उठाया। दुनियादारी से यह कवि कितना दूर था, इसका अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि इसकी कविता- कहानियों का एक संकलन भी न तो जीते- जी आ पाया, न जाने के बाद, जबकि उसकी रचनाएँ हिंदी के सभी प्रतिष्ठित पत्र व पत्रिकाओं में छपती रही थीं।
आनंद संगीत की ये कविताएँ उसके उठान के दौर की हैं। ये अपेक्षाकृत दीर्घाकार हैं जबकि प्रायः उसने छोटी कविताएँ ही लिखी हैं। व्यक्ति के रूप में अन्तर्मुखी आनंद संगीत को हम यहां यथार्थ से मुखामुखम में देख सकते हैं। हिंसा को एक वीतरागी संत के से तुच्छ- हेय भाव से देखने वाले आनंद की ये कविताएँ जीवन के प्रति गहरी अनुरक्ति से ओतप्रोत हैं। यथार्थ के विपर्यय में कल्पना की सृष्टि से उन्होंने बर्बरता के मध्ययुगीन विद्रूप को नग्नता में उद्घाटित किया है जहाँ उसका तिलिस्म विखंडित हो जाता है।
एक अजीब शहर का साक्षी बनते हुए विषष्ण भाव से उसकी कविता प्रति- प्रश्न करती है - कि यहां प्यार क्यों पहला चलन नहीं है? समय की सहज गति क्यों थम गयी है? संवेदना की आर्द्रता और भाव- प्रवणता से उसके बिम्ब दिपदिपाते हैं- चांद एक तिरछी पंखुरी। छोटे को देवत्व के अभिशाप से मुक्त मानने वाले आनंद संगीत जैसे एक नजूमी की तरह इन कविताओं में आगत भविष्य को इंगित कर गया है।
आभार मुक्त समय के लिए भी आनंद संगीत का अल्प- वय: जाना एक दु:स्वप्न से कहीं अधिक त्रासद रहा। उसी के शब्दों में- दुःस्वप्न में एकान्त चीख है- विदा !
और अपील
हमारे मित्र अनिरुद्ध उमट ने तय किया है कि आनंद संगीत की रचनाओं का एक संचयन यथाशीघ्र प्रकाशित किया जाये। सभी मित्रों से अनुरोध है कि जिनके भी पास आनंद संगीत की कविताएँ- कहानियाँ हैं अथवा जो खोज सकते हैं, वे एक बिसराये हुए रचनाकार को स्मृति में संरक्षित करने के इस उपक्रम में भागीदार बनें। संपर्क : अनिरुद्ध उमट, मोबाइल: 9251413060
ईमेल: anirudhumat1964@gmail.com
आनंद संगीत की कविताएँ
१. कदाचित् यह विश्राम का समय नहीं
आकाश की सांवली नदी में
चुपके से नहाते तारे अनगिनत दुर्निवार
तैरते, हंसते, ठिठोली करते, टिमटिमाते
गुपचुप कनबाती वे करते
थककर सब किनारों पर रात भर
सीमित समय के पार
दृष्टि अवसीम खो जाती नदी में अथाह
वृक्ष सोते धरती के वक्ष पर सारी रात
पक्षी विश्राम करते सुबह तक
जगाता फिर उन्हें सूरज
चल देते सभी मंच से लेकर
अपनी भूमिका, एकांत खेल
जागते शहर सारे देश को जगाता
घेर लेता गंदा अखबार सूचनाएं देता
देता रोमांच, रक्त की नदी को
बांध लेते राष्ट्राध्यक्ष,
हत्यारे, निर्मम बलात्कारी
मंद- बुद्धि सब लडने जाते
रक्त के लिए आसक्त
जाओ लडो, गुलामी की जंजीरें तोडो,
मनुष्यों को स्पष्टता से मारो
संकट आया है जीतो,
मर जाओ हे गौरवशाली !
अपनी मूर्ख विधवाओं
से कहो तमगे ले आयें दिल्ली जाकर
सूर्य के लिए,
इतिहास की पुस्तकों की खातिर
लडो आकर मध्य- युग के मंच पर
विश्राम का समय यह नहीं था !
२. देहान्तर
कई दिन पूर्व में लड़की नहीं थी
पानी पर थरथराती
सिर्फ एक लकीर
छपछपाती बूंदों का बहता
हुआ खिलखिलाता शोर
या कागज की दूर तक बहती धूप
में अनंत एक नाव
कठोर पत्थरों पर
गर्व से सिर उठाये कोमल घास।
किन्तु नहीं हुए लहुलुहान पैर
नाचे और अनर्गल
तितलियों की तरह
लहराने हवा में लगे
औचक मैं आकाश
को छाया हुआ निरर्थक
बादल एक विरल
अनगिन फूलों और
हजार मधुमक्खियों की नींद में
अनाहत गिरती असंख्य बार
पैने पत्थरों पर
मेरी धमनियों में रक्त नहीं था
मेरी जांघों में नहीं था
मैले रक्त का दुष्प्रभाव
देवता नहीं थे आए मेरे लिए
ईश्वर साक्षी नहीं रहा उदात्त
किसी ज्योतित दु:स्वप्न का प्रणेता
वह बस किसी सुखद बगुले का
खुरदरा विलाप!
और आदिम पर्वतों की नींद
पर जागा हुआ वृक्ष वह एक विराट
सुषुप्ति से सघन
मुझसे बड़ा,
उडते हाथियों से अधिक तेज,
तुझसे भी बड़ा
आकाश की नीली सीप में नीहारिकाओं
- सा ज्योतिर्मय गूंजता प्रेम
और पुण्य का सुकोमल सैलाब
अथवा चांद
एक तिरछी पंखुडी
पापों की सलौनी गोद
पतझड के मैले, सूखे पत्तों का गुह्य- निर्झर
मरमरी प्रलाप, देर तक नींद और मेरी मां
और ठंडी चींटियों
में सदा से समाया उसे
मैं देती हूं अभिशाप तब भूल जाती हूं
थोडी देर के लिए
कई दिन पहले
कि मुझे एक लडकी हो जाना था।
३.जब नहीं दुनिया होगी शेष
जब संसार नहीं बचेगा
सबसे अधिक होंगे दुखित राष्ट्राध्यक्ष,
समाजसेवी और महान उपदेशक !
यदि सिर्फ सकेगा बच
एक विफल पेड़
आसक्त परिकल्पना में,
धुएं या अंतहीन कुहासे
में भी नहीं होगा घिरा ;
तब भी तो नहीं होगी
ठंडी- लंबी सड़क
बेलौस दूरियां
चहलकदमी मुक्त और अनंत काल
दिशाएं या सुकवि की मेज
जिस पर गूंज सकेगी
भाषा की अभागी थपथपाहट
कला के व्यापार
या कोई काली कोख
एक बच्चा
एक खिडकी
जहां हो एक फकत तारे की
निर्बल टिमटिमाहट !
और तब तारादल- नक्षत्रों-
यदि हो सकेंगे वे-
को अजनबी कौन झांकेगा- कौन ?
नहीं बस एक सूखा पत्ता-
सूखा पत्ता- क्या होगा ?
पत्नियों की उपेक्षाएं,
पुरुषों की सनक
बीमार माएं, कमजोर बाप
खडखडाती देह
या ऊब और खीझ और विराग
छितराये पंख
या प्रतीक्षित चिट्ठियों का मौन !
भग्न अट्टालिकाओं पर गिद्ध
सांध्य- अबाबील
दिव्य गाय, उडते हाथी
ऊंचे पर्वत, घाटी, नदी
चिरे हुए समुद्र, टूटे पुल
कराह और शोक- गीत
आइसक्रीम के बिखरे डिब्बे
प्रार्थनाएँ, ईश्वर
सृजन और एकांत
अधूरी इच्छाएं, सुखी मनुष्य
या नश्वर झींगुरों
की सबल नीली आह- क्या होगा ?
सुखद नींद या शाश्वतता
या कारुणिक मृत्यु- क्या ?
जब नहीं दुनिया होगी शेष
दूसरी दुनिया के हेतु
सुखद स्मृतियाँ भी क्यों कर !
हे दुष्टो ! तब सार्थकता भी नहीं होगी ;
और अपाहिज विस्मरण भी नहीं होगा !
४. वापसी और शोक- गीत
मरे कुछ दूर कुछ पास मरे
घरों में, युद्धों में, धमाकों और गूंज में
अस्पतालों में मरे
हवाई- अड्डों पर कुछ जाते हुए, आग में
झुग्गियों में
भूख और आत्मा की अमरता में
और घर लौटते हुए पत्नियों की याद में
आह इतना ही संसार
कि वह नन्हीं- चट्टान
और वे विदा से पहले मरे
मैं ने कहा, कहो कुछ तो
गोरे हो काले हो
ईश्वर है आत्मा है
धुआं है इतना ही कहो
कि दु:स्वप्न में एकांत चीख है- विदा
किसी ने कहा कि युद्ध होगा, जाओ
क्यों होगा ? लेकिन जाओ
और जो नहीं गये, बैठे थे, जीते थे
प्यार करते किसी तरह आत्मा और बच्चों
की अमरता में करते विश्वास
वे भी मरे और वापसी से पहले
( आह वे कहां जाते ?)
आओ तुम यहां लौट, आओ
मैं न कहता था सब है
किन्तु मैं जीवित
तुम लौटो झूंठी आशा में
शब्द और नींद के कुहासे मे
रम जाओ
तुमने तो संसार को बुना नहीं है
तुम रोनाल्ड रीगन
या किसी के भाई नहीं हो
तुम छोटे हो,
देवत्व से अभिशप्त नहीं हो
संसार ऊन का
सुलझा हुआ गोला नहीं है
इतनी फुरसत नहीं है
आसमान तो देखो, स्वेटर मत बुनो
मैं न कहता था कि
शोक- गीत से जागो ?
५. एक बेगुनाह शहर की कथा
आकांक्षा सिर्फ एक फटा हुआ पृष्ठ
मेरे शहर में सन्नाटे की हद थी !
रात के कमज़ोर कोने से
नींद के अंतिम सिरे तक
एक सपना भी नहीं !
और शाम ढलते ही
लोग चले जाते हों
घरों में रहने के लिए
फिर नन्हीं आहट भी
वहाँ निष्कासित हो,
दीवार पै कोई धुंधली- सी छाया आये,
या खांसी उभरे
लेकिन रोशनी से चौंके
अजब शहर है
घने बादलों की ओट से
चुपके- चुपके उतरे चांदनी
और न कोई वृक्ष हो,
न रास्ता भटके हुए पक्षी कोई
इधर- उधर आसमान में
देर रात तक महफिलें, न गीत
कोई टहनी इसी एहसास से कांपे,
मगर चुप है !
या इकलौता शराबी ही
वक्त के बीच से उभरे
दूर तक डगमगाये और देर तक
समय कुछ मंद- मंद बहे- आभारमुक्त
कोई पूछे तो-
सभी वक्तों की धुंध
लेकिन क्यों वहाँ आयी- पूछता
था कि प्यार क्यों पहला चलन नहीं था ?
सचमुच मेैं अजीब शहर का साक्षी था।
( हंस, सितम्बर 1990 से )
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