महेशचन्द्र पुनेठा समकालीन कविता में जानी- पहचानी शख्सियत हैं लेकिन हमारे साहित्यिक समुदाय में पता नहीं कितने लोग जानते हैं कि वे शैक्षिक क्षेत्र के एक उल्लेखनीय एक्टिविस्ट हैं। इसी भांति शिक्षा जगत में उन्हें गंभीर पत्रिका शैक्षिक दखल और उनकी शैक्षणिक सक्रियताओं के कारण जानने वाले लोग उनकी साहित्यिक पहचान से अनजान होंगे। यह हमारे इलाकों के बंटबारे और वैयक्तिक सीमाओं से उत्पन्न विडंवना है जो मुझे भी झेलनी पडती है। मैं अक्सर यह शिकायत दर्ज करता रहा हूं कि हिन्दी साहित्यकारों का वितान कुछ संकीर्ण है। बहरहाल, हम महेशचन्द्र पुनेठा के शैक्षिक हस्तक्षेप पर थोडी चर्चा करना चाह रहे हैं जिसकी नुमाइंदगी उनकी किताब शिक्षा के सवाल करती है।
महेशचन्द्र पुनेठा पेशे से शिक्षक हैं और इस लिहाज से शिक्षा पर यह एक इनसाइडर की किताब है। हिन्दी में शिक्षा पर अन्य ज्ञान- अनुशासनों की भांति गंभीर मौलिक किताबों का अभाव है। दूसरे, शिक्षा पर लिखने वाले कई लेखक प्रत्यक्ष रूप से शैक्षणिक कार्य से नहीं जुड़े रहे हैं। इस आधार पर अक्सर उनके निष्कषों की आलोचना की जाती है। ऐसे में शिक्षा- प्रणाली के भीतर से एक सक्रिय कर्ता का नजरिया हमारे लिए महत्वपूर्ण हो जाता है। पुस्तक की भूमिका में स्वयं पुनेठा मानते हैं कि शिक्षा की बेहतरी में शिक्षक की निर्णायक भूमिका है। लेकिन वे यह भी मानते हैं कि शिक्षा की मौजूदा बदहाली के लिए सिर्फ शिक्षक दोषी नहीं हैं। इस पुस्तक में वे शैक्षिक पतन के कारकों की वस्तुपरक टोह लेते हैं और उनका विश्लेषण करते हैं। चूंकि वे परिदृश्य से सीधे संलग्न हैं, इसलिए उनके निष्कर्षों की प्रामाणिकता बढ जाती है।
हमारा शिक्षा- तंत्र दुनिया के वृहत प्रशासनिक ढांचों में से एक है और शिक्षक इसमें कोर एजेंट हैं। बेशक तंत्र की
सोपान- क्रमिक संरचना में वे अधीनस्थ श्रेणी में है और व्यवहार में सबसे निचले पायदान पर हैं। व्यवहार का संदर्भ में इसलिए दे रहा हूं कि क्लर्क, लेब अस्सिस्टेंट बगैरह भले ही तकनीकी रूप से इनके नीचे हों किन्तु तंत्र में उनकी हैसियत कहीं ज्यादा है। नीति - निर्माण में शिक्षकों की भूमिका लगभग नगण्य है जिसकी पुनेठा जी ने आरंभ में ही बड़ी वेदना के साथ शिकायत की है। यहाँ प्रसंगवश मैं एक तथ्य की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूं। शिक्षक संगठन भी एक जमाने से हमारे यहाँ वृहद और ताकतवर रहे हैं। उनके द्वारा समय- समय पर दिये मांग- पत्रों के अवलोकन में मैं ने पाया कि उन्होंने शायद ही कभी पाठ्यक्रम व पाठ्य- पुस्तक निर्माण जैसे नीति- निर्णयों में अपनी भागीदारी को सुनिश्चित करने की बात कही हो। हालांकि पहले तो उनके वेतन- भत्ते इतने कम थे कि उनकी लड़ाई अक्सर इन्ही में उलझी रहती थी लेकिन अब तो वे यह मुद्दा उठा ही सकते हैं, भले ही अपने आकार और शक्ति के हिसाब से उनका क्षरण हो गया है।
यह किताब शिक्षा के इर्द- गिर्द फैले और इसकी प्रक्रिया में समाये तमाम प्रश्नों को उठाती है। शिक्षा- व्यवस्था में व्याप्त जडता की चर्चा में वे शिक्षक के मनोविज्ञान को भी समझने की जरूरी गुजारिश करते हैं। स्कूलों में सृजनशीलता के अभाव के कारण गिनाते हुए वे बच्चों में भय की व्याप्ति को मुख्य मानते हैं। उनका मानना है कि सृजनशीलता जीवन से जुड़ी है और इसे हम सिर्फ स्कूल तक सीमित नहीं कर सकते। स्कूलों के विसंगत स्तरीकरण की आलोचना में समान स्कूल प्रणाली का समर्थन हुए वे कई लेखों में निजीकरण के खतरों से आगाह करते हैं। शिक्षा के माध्यम से लोकतांत्रिक और वैज्ञानिक मूल्य- चेतना के प्रसंग में वे शिक्षकों की दोहरी मानसिकता का सवाल उठाते हैं। बच्चों के प्रति संवेदनशीलता और गहरी प्रतिबद्धता जैसे पुनेठा के शैक्षिक चिंतन की धुरी है।
हमने कहा कि पुनेठा शिक्षा में एक एक्टिविस्ट की तरह कार्यरत हैं। उन्होंने शिक्षकों का एक बड़ा नेटवर्क बनाया है और उसके जरिए अनेक कार्यक्रम और गतिविधियों का संचालन कर रहे हैं। शैक्षिक दखल पत्रिका इसी मंच का यशस्वी प्रकाशन है जिसके माध्यम से हमारे समय के अनेक शैक्षणिक मुद्दे गंभीर विमर्श के दायरे में आये हैं। मेरी जानकारी में उत्तराखण्ड के शिक्षकों की यह स्वतंत्र पहलकदमी अकेली, अनूठी और उत्प्रेरक है। जैसी कि एक सच्चे नेतृत्व में विनम्रता होती है, मुझे मालूम है पुनेठा जी इसके लिए अपने साथियों को ही श्रेय देंगे।
इस पुस्तक के प्रसंग में यह उल्लेख इसलिए कि कई लेख तो पुनेठा जी ने उपरोक्त सांगठनिक प्रक्रियाओं के दौरान लिखे हैं। और बाकी अभी भी किसी न किसी प्रक्रिया के चलते विमर्श में हैं। इनमें शिक्षक का अनुभव डायरी लेखन, शैक्षणिक यात्राएं, गीष्मकालीन- शीतकालीन सृजनात्मक कार्यशालाएं हों अथवा व्यापक रूप लेता जा रहा दीवार- पत्र अभियान हो। इस लिहाज से यह एक व्यवहार में बरती जा रही किताब है और एक किताब के लिए भला इससे बड़ा सम्मान और क्या हो सकता है।
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