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जुरहरा की रामलीला



"लोक में राम और जुरहरा की रामलीला " डॉ॰ जीवन सिंह द्वारा लिखित एक अलग तरह की किताब है। इसमें डेढ शताब्दी से भी अधिक समय से जुरहरा में होने वाली रामलीला का विस्तृत दस्तावेजीकरण है। जुरहरा गाँव के सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य के साथ रामलीला की शैली, अभिनय- प्रक्रिया और लीला- प्रबंधन का ऐतिहासिक विवरण है। इस रामलीला ने वहाँ साधारणता और सामूहिकता की भावना को ऊर्जस्विता प्रदान की है।

जुरहरा राजस्थान के भरतपुर जिले का  सीमावर्ती गाँव है जो अब बड़े कस्बे का रूप ले चुका है। ये राजस्थान, हरियाणा और उत्तर प्रदेश की सीमाओं के मध्य स्थित है। करीबन पांच शताब्दी पूर्व बसे इस गाँव में हिन्दू, जैन और मेव मुस्लिमों की आबादी है। आंचलिक रूप से मेवात और सांस्कृतिक रूप से ब्रज- मेवाती भाषी इस कस्बे के हिन्दुओं में अनेक सवर्ण, पिछड़ी व दलित जातियाँ शामिल हैं। जीवन सिंह लिखते हैं कि आजादी के आन्दोलन के समय सुधारिणी सभा ने गाँव में साक्षरता के साथ वाचनालय- पुस्तकालय स्थापित किये लेकिन आज की तारीख में कस्बे में कोई पुस्तकालय नहीं है। रामलीला जुरहरा का ऐसा सांस्कृतिक अनुष्ठान है जो सभी तरह के लोगों को परस्पर जोडे है। यह प्रतिवर्ष जन - सहयोग से होने वाला आयोजन है।

जीवन सिंह के शोध के अनुसार १९ वीं सदी के मध्य (संभवतः १८५४ ) में कभी जुरहरा में रामलीला- आयोजन की शुरूआत हुई। उस समय पं. शोभाराम के संगीत अखाड़े ने इसे आगे बढाया। उनके पुत्र ब्रजलाल शर्मा कथावाचक ने आजीवन रामलीला के आयोजनों का नेतृत्व किया। इतने वर्षों से अनवरत चलने वाली रामलीला में सिर्फ १९४७ के विभाजन के दंगों से एक बार व्यवधान आया। जुरहरा की रामलीला को १९८७ में  मध्य प्रदेश आदिवासी लोक कला परिषद की ओर से भोपाल और उत्तर प्रदेश सरकार के संस्कृति सचिवालय की ओर से अयोध्या में विशेष प्रस्तुति के लिए बुलाया गया। राजस्थान संगीत नाटक अकादमी के आमंत्रण पर १९८८ में जोधपुर में जुरहरा की रामलीला के एक प्रसंग का प्रदर्शन हुआ। १९३३ से रामलीला आयोजन समिति की ओर से  १५ दिवसीय लीला के समापन के बाद नाट्य- मंचनों की शुरुआत हुई जिनमें हाथरस की नौटंकी शैली में प्रस्तुतियां की जाती थी।

जीवन सिंह स्वयं सक्रिय रूप से रामलीला मंचन से जुड़े रहे हैं। उन्होंने रामलीला में मुख्यतः रावण की भूमिका के अतिरिक्त शम्पाती, खर- दूषण और निषाद की भूमिकाएं अभिनीत की हैं। वे २०१० में दो वर्ष के लिए रामलीला प्रबंध समिति के अध्यक्ष चुने गए। इसलिए रामलीला के आंतरिक पक्षों पर उनका विवेचन महत्व रखता है। वे बताते हैं कि राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के मुख्य स्वरूप- चरित्र सदैव ब्राह्मण- कुमारों को ही दिये जाते रहे हैं। ऋषि- मुनियों सहित, ऐसे पात्र जिन्हें ये स्वरूप प्रणाम करते हैं, वे भी ब्राह्मणों द्वारा ही अभिनीत किये जाते हैं। एक सहभागी शोधार्थी की तरह वे  अपना अवलोकन बताते हैं कि श्रद्धावनत दर्शकों के मूल्य- बोध और व्यवहार पर रामलीला का कभी कोई खास प्रभाव परिलक्षित नहीं हुआ।

पुस्तक में संदर्भ के तौर पर जीवन सिंह उत्तर भारत के विभिन्न प्रदेशों में होने वाली रामलीलाओं के इतिवृत्त और शैलियों का विवरण प्रस्तुत करते हैं। इनमें काशी, चित्रकूट और अयोध्या की रामलीलाएं हैं जिनके बारे में मान्यता है कि इनकी शुरूआत गोस्वामी तुलसीदास ने करायी थी। रामनगर, लखनऊ, मथुरा और दिल्ली की रामलालाएं हैं। उन्होंने लोक- नाट्य और लीला- नाट्य में बुनियादी अंतर किया है जो लीला- नाट्य में निहित धार्मिक तत्व के आधार पर है। इन सभी राम लीलाओं में रामचरित मानस नाट्य का आधार ग्रंथ है। जुरहरा की रामलीला इस क्रम में एक केस- स्टडी बन जाती है।

आरम्भ में , उन्होंने ऐतिहासिक क्रम में प्रचलित राम- कथाओं, राम- लीलाओं , रामचरित मानस और लीला- नाट्यों के रूपों की पडताल की है। वे रामचरित मानस और तुलसीदास से अभिभूत रहे हैं। लेकिन इस बार उन्होंने चीजों को आलोचनात्मक ढंग से देखा है और तुलसीदास के वर्ण- व्यवस्था व स्त्री- विभेद के समर्थन को उनकी बड़ी कमजोरी माना है। किन्तु अभी भी वे विशिष्टता और सीमाओं को अतिरेकों में ही देखते हैं। पुस्तक में तथ्यों- विवरणों का दोहराव पढने की लय को बाधित करता है। दुर्भाग्य की बात है कि ऐसी किताबों को प्रकाशक नहीं मिलते। २०११ में लिखी यह पुस्तक जुरहरा के लोगों के सहयोग से कुछ समय पहले प्रकाशित हो पायी है।


टिप्पणियाँ

  1. मेलों की नगरी कस्बा जुरहरा के निवासियों के दिलों में बसती हैं जुरहरा की रामलीलाएं

    रेखचन्द्र भारद्वाज पत्रकार

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