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जन- कविता के एक शिखर कवि



बल्लीसिंह चीमा की पहली पुस्तिका खामोशी के खिलाफ १९८० में आयी। हिन्दी क्षेत्र में सातवें और आठवें दशक प्रबोधन और जन- उद्वेलन के रहे हैं, जिन्होंने सृजन की लगभग हर विधा को प्रभावित किया है। इस दौर में कवि-सम्मेलन अपनी लुभावन चमक खो रहे थे और सच्ची कविता उभरते जन- आन्दोलनो से जा जुड़ी थी। यह बाबा नागार्जुन की अहम राजनीतिक कविताओं का समय था जिनके चलते उन्हें जन- कवि कहा जाने लगा। हालांकि अकादमिक तौर पर कहें तो गीत- आन्दोलन नव- गीत से जन- गीत तक आ पहुंचा था और हिन्दी गज़ल शीर्षक से दुष्यंत द्वारा ढाली गज़ल का फ्रेमवर्क प्रसारित हो रहा था। ऐसे समय में नये तेवरों से कविता को लोगों के बीच ले जाने और उनको तराने बना देने वाले कवियों की एक पूरी कतार सामने आयी जिनमें शलभ श्रीराम सिंह, रमेश रंजक, रामकुमार कृषक, कमलकिशोर श्रमिक ,अदम गोंडवी और बल्लीसिंह चीमा जैसे कवि थे। गोरख पाण्डेय ने भोजपुरी- हिंदी में कई लोकप्रिय गीत दिये। इन कवियों की कविता आन्दोलन-रत कृषक- श्रमिक- मजदूरों, छात्र- नौजवानों और सांस्कृतिक- दस्तों के बीच छा गयी। आज उस समय का पुनरावलोकन करते हुए देखें तो पाते हैं कि बल्लीसिंह चीमा की सृजन- यात्रा सातत्यपूर्ण और दीर्घकालिक रही है।

बल्ली की कविता का विस्तार दूर तक है। रेडिकल वाम से सम्पृक्त बल्ली आल इंडिया पीपुल्स रेजिस्टेंस फोरम से जुडकर देश भर में पहुंचे। वे पीपुल्स डेमोक्रेटिक फोरम आफ इंडिया से भी सम्बद्ध रहे। उल्लेखनीय है कि अन्तर्जाल की दुनिया में भी उन्हें भारी लोकप्रियता हासिल है। कविता- कोश ने इसके लिए उन्हें सम्मानित किया है। बल्ली ने मात्रा के हिसाब से ज्यादा नहीं लिखा। औसतन एक दशक में उनका एक संकलन आ पाया है। लेकिन वे जो लिखते हैं, अपने मन और सोच के साथ लिखते हैं। उनकी सृजनात्मक सक्रियता में गहन ऊर्जा और नैरन्तर्य है। उसमें आंचलिकता और निजता का रागात्मक सघन प्रवाह है। एक और बात लक्षित की जा सकती है, उनका रचा कुछ भी पुराना नहीं पडा। शुरूआी लेखन भी उतना ही ताजा और मौजूं है। यह उनकी गहरी अन्तर्दृष्टि और दृढ प्रतिबद्धता के कारण संभव हुआ है।

हिन्दी में यह लगभग आम राय है कि बल्लीसिंह चीमा हमारी जन- कविता के एक शिखर - कवि हैं। यह भी कहा जाता है कि कविता में किसी प्रकार का बंटवारा उचित नहीं है। कविता सबसे पहले और सर्वोपरि सृजन है। इस तर्क को विस्तारित किया जाये तो कह सकते हैं कि सभी कलाएं अंततः सृजन ही हैं। तथापि उनमें विभाजन किया जाता है और यह सिलसिला पुराना है। आखिर ऐसा क्यों किया जाता है? मुझे लगता है कि यह विचार के चलते होता है। कोई भी रचना विचार के परे नहीं होती। विचार ही उसे दीर्घजीवी और प्रासंगिक बनाता है। सामाजिक रूपान्तरण की सतत प्रक्रिया भी विचार से परिचालित है। जो शक्तियाँ समाज को गत्यात्मकता और सार्थकता देने के लिए सक्रिय होती हैं , वे सृजन में भी अपना साम्य खोजती हैं और उससे अपना तादात्म्य कायम करती हैं। कृपया इस मुगालते में नहीं रहें कि कलाओं में वैचारिक आधार पर  विभाजन सदैव समीक्षक लोग ही करते हैं। परिवर्तनकामी जन- शक्तियाँ खुद भी अपने कलाकारों का चुनाव करती हैं।

# पढते- पढते/१८

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