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फ्लैशबैक

फ्लैशबैक -१

जब सभी अतीत स्मृतियों में जा रहे हैं तो कुछ क्षण मुझे भी जाने की इजाजत दें। हमारे संगठन में एक कर्मठ ट्रेड यूनियन नेता, लेखक और लोकशासन पाक्षिक के संपादक बी. पी. सारस्वत हुआ करते थे जिन्हें आदर से सब लोग चाचा कहा करते थे। उन पर विस्तार से कभी आगे लिखूंगा। अभी तो अपने बारे में उनके कुछ उद्गार-

राजाराम भादू अनजाने में एक ऐसा नाम. उभर कर सामने आया है जिसे अब सभी तरफ जाना जाने लगा है। इस नवयुवक साहित्यकार में प्रतिभा है। निरंतर चिंतन से विकसित ऊर्जा और कठिन परिश्रम के बलबूते यह रचना- कर्मी अपने सापेक्ष हस्तक्षेप से अपना स्थान बनाने में सफलता से अग्रसर है। युवा आलोचक के रूप में जहां राजाराम भादू स्पष्ट रूप से उभर कर प्रतिष्ठा पा चुके हैं, वहींं दिशाबोध साहित्यिक पाक्षिक के माध्यम से उन्होंने अपनी विकसित दृष्टि का परिचय दिया है।

कविता, कहानी, आलेख से लेकर अनुवाद के क्षेत्र में उनका दखल है। साहित्य के अलावा सिनेमा, रंगमंच और अन्य कलाओं के अध्ययन में उनकी गहरी रुचि और जन- संस्कृति की अच्छी पकड के कारण उनका दायरा व्यापक हुआ है। राजाराम भादू की सहज संवेदनशीलता के पीछे उनकी ग्राम्य जीवन की सह्रदयता नज़र आती है। नगरों और महानगरों के कठोर जीवन तथा उभय पक्ष की वितृष्णा व विसंगतियों से कोई समझौता न करके वे अपना मार्ग प्रशस्त करते नज़र आते हैं। इससे  भी उनका सघन दायित्व बोध और साथ में मानवीय पक्ष को बनाये रखकर सीढियाँ चढने की सार्थकता का विश्वास सहायक सिद्ध हो रहा है।

राजाराम भादू को कुरेद कर देखने की कोशिश करें तो ज्ञात होता है कि वे एक किसान के बेटे हैं। विरासत में पिता से आर्य समाजी संस्कार और गांधीवादी सोच पाया। यह सामंती व्यवस्था के बीच तत्कालीन चेतना का प्रतीक रहा। वहीं घर में बृज संस्कृति की पृष्ठभूमि और वातावरण था। अपने छात्र जीवन में वे छात्र- आंदोलन से होते हुए वामपंथी विचारधारा से प्रभावित किसान और मजदूर संघर्षों में भागीदारी के अनुभवों से गुजरे। इस सक्रियता की अगली मंजिल में युवा भादू शैक्षिक अनुसंधान व चिंतन प्रक्रिया में वैज्ञानिक समाजवादी समझ के स्तर पर साफगोई से आगे बढे हैं।

यह कहा जा सकता है कि उनका अपना अनुभव, संघर्ष, परिश्रम और अध्ययन उन्हें दिशा और रास्ता प्रदान कर पाया है। शायद इन्हीं सभी कारणों का परिणाम सामने आया है कि वे चिंतन के माध्यम से नये आयाम दे सकने में समर्थ लगते हैं। इस रुझान में एक संवेदनशील रचनाकार पनपता है और अभिव्यक्ति की ओर सशक्तता से बढता दिखाई देता है। इसी बोध से वह आलोचक होकर नये परिवेश में जीवंत दृष्टि से स्थितियों को वस्तुपरक विश्लेषण तक पहुंचाता है। राजाराम भादू का लेखन कर्म कविता, कहानी, समीक्षा आदि विधाओं के माध्यम से सुधि पाठकों के बीच पत्र- पत्रिकाओं में छप रहा है। सन् १९९० में उनकी आलोचना पुस्तक कविता के संदर्भ प्रकाशित हुई जिसे हिन्दी जगत में सराहना मिली। अब १९९३ के अंतिम महीनों में उनकी कृति स्वयं के विरुद्ध प्रकाशित होकर आयी है।

           लोकशासन/ वर्ष-१५ अंक- २८  ९ मार्च, १९९४

फ्लैशबैक-२

भाऊ समर्थ

प्रसिद्ध  साहित्यिक पत्रिका कथ्य-रूप ( सं. अनिल श्रीवास्तव) ने चित्रकार भाऊ समर्थ की स्मृति में समर्पित एक अंक (१९९२)प्रकाशित किया था। पत्रिका के विभिन्न लेख व संस्मरण भाऊ के सहचर- मित्रों, प्रशंसकों और शिष्यों द्वारा लिखे गये थे। इन लेखों व संस्मरणों में भाऊ के दुधुर्ष कला- संघर्ष और अभाव- ग्रस्त जीवन के अनेक अन-उदघाटित पक्षों को सामने रखा गया था। इनके सार रूप में चित्रकार हरिपाल त्यागी की इन पंक्तियों को उद्धरित किया जा सकता है: उसने अकेले ही दस चित्रकारों का काम किया और एक चित्रकार को जितना मिलना चाहिए, उसका दसवां भाग भी उसके हिस्से में नहीं आया।

कथ्य-रूप के इन लेखों की जिस दूसरी बात पर ध्यान गया, वह है- भाऊ की कला में अमूर्तन को लेकर लेखकों का संशय-भाव। .... हमें इस पर विचार करना चाहिए कि अंततः भाऊ समर्थ ने कला- सृजन की अमूर्त शैली को ही क्यों अपनाया ? भाऊ के अनेक रेखांकनों को गौर से देखने, जीवन और कला में उनके आत्म- संघर्ष को जानने और उनकी कला- विषयक अवधारणाओं का अध्ययन करने के बाद मुझे प्रसिद्ध कला- चिंतक लूसिये गोल्डमान की यह उक्ति याद आती है : लगभग सभी समकालीन कला अस्वीकार की कला है जो कि आधुनिक संसार में मनुष्य के अस्तित्व पर सवाल करती है और जिसे ऐसा करने के लिए अवश्य ही अमूर्त स्तर पर होना चाहिए।

भाऊ समर्थ कलाकार के साथ कला-चिंतक भी हैं। कला के क्षेत्र में अनुभव यह बताते हैं कि विचार को कला में ढालना अत्यंत कठिन प्रक्रिया है। भाऊ इस प्रक्रिया से निरंतर जूझते हैं। विचार स्वयं एक अमूर्त धारणा है। कला तक विचार की यात्रा का क्रम कुछ इस तरह है - मूर्त- अमूर्त और फिर संमूर्त। भाऊ की जिस कला को हम अक्सर अमूर्तन कहते हैं, वह असल में संमूर्तन है। पेंटिंग में संमूर्तन अनाकृति में व्यक्त हो सकता है किंतु वह अरूप नहीं होता।

भाऊ समर्थ अपनी कला में ऐसा क्यों करते हैं? इस पर स्वयं भाऊ क्या कहते हैं, हम पहले यह जान लें। भाऊ के लेखों की अनुवादक और उनकी पुस्तकों की संपादक ऊषा बैरागकर आठले भाऊ के एक व्याख्यान से उद्धृत करती हैं: अमूर्त कला वह है जिसमें परिचित आकार नहीं होते। कला का काम न समझने से समझने की ओर यात्रा करता है। कलाकार सिर्फ मनोरंजन नहीं करता, वह बहुत गंभीर व्यक्ति होता है। ...इसके लिए भाऊ अपने दर्शक को सक्रिय करते हैं, कृति से उसमें बैचेनी पैदा करते हैं, दर्शक की तटस्थता को तोडकर उसे अपना सहयात्री बना लेते हैं। भाऊ समर्थ की पेन्टिग मे अपनायी यह प्रक्रिया ब्रेख्त के रंगमंच से बहुत साम्य रखती है। चित्रकार हरिपाल त्यागी भी यह मानते हैं : रंग, रेखाओं और आकारों के सूझबूझ से किये गये प्रयोग... उसके प्रभाव न केवल दृष्टि संस्कार को परिष्कृत कर हमारे सौंदर्य- बोध को को विकसित करते हैं बल्कि.... ।

भाऊ के रेखांकन साहित्यिक पत्रिकाओं के माध्यम से व्यापक स्तर पर प्रसारित हुए हैं। उनकी कला- कृतियाँ अधिकांशतः मध्यवर्ग के घरों में सजी हैं। लगता है, यह भाऊ की सोची- समझी योजना थी जिसके अन्तर्गत वे हजारों लोगों की दृष्टि का संस्कार कर उनके सौंदर्य- बोध को परिष्कृत और चेतना को विकसित करने की मुहिम में लगे थे। अपनी कृतियों को अक्सर ही वे रचे जाने के तुरंत बाद कहीं न कहीं दे देते थे, इसलिए अपने किये काम का कोई खाका उनके समक्ष नहीं रहता था। एक तरह से अपनी मुहिम में तल्लीन उनका काम ठहर कर किया हुआ भी नहीं है। उनकी कृतियों के विषय व शीर्षक नहीं हैं। अपने चिरंतन कला चिंतन को वे चहुं दिशाओं में फैलाते रहते थे। इसलिए सदैव उनके पास अव्यक्त और अनकहा कुछ न कुछ बना रहता था। यही वह धरातल है जहाँ हम भाऊ के कला - चिंतन और सृजन को एक समान आधार पर देख सकते हैं। इस रूप में वे मुक्तिबोध की तरह हैं, वैसे भी दोनों मित्र थे।
                                         - राजाराम भादू
       आकृति, फरवरी- मार्च १९९३, (जयपुर )से कुछ अंश

भाऊ का चित्र और पेंटिंग ऊषा बैरागकर आठले के सौजन्य से

फ्लैशबैक- ३

कविता पोस्टर

चिपकाता कौन है
मकानों की पीठ पर 
अहातों की भीत पर
बरगद की अजगरी डालों के फंदों पर
अंधेरे के कंधों पर 
चिपकाता कौन है

चिपकाता कौन है
हडताली पोस्टर
बांके- तिरछे वर्ण और 
लंबे- चौडे, घनघोर
लाल- नीले भयंकर
हडताली पोस्टर

यह मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता अंधेरे में की कुछ पंक्तियाँ हैं जिनमें पोस्टर का आन्दोलन और विरोध के एक सशक्त माध्यम के रूप में उल्लेख हुआ है। पोस्टर को प्रचार की कला माना जाता है। लेकिन हमें पोस्टर के एक कलाकृति और प्रचार- माध्यम के रूप में अन्तर करना होगा। यह सही है कि ऐसे अनेक कला- चिंतक हैं जो पोस्टर को किसी भी हालत में कला का दर्जा नहीं देना चाहते‌। एक कलाकृति के रूप में पोस्टर पर विचार करने के लिए हमें पोस्टर के जन्म की स्थितियों का आकलन करना होगा। किन्तु इससे पूर्व हमें यह मान लेना है कि सभी पोस्टर कला नहीं होते और कला का दर्जा हासिल करने के लिए पोस्टर को भी कला की सामान्य विशेषताएँ अर्जित करनी होती हैं। असल में किसी नये कला रूप को मान्यता मिलने में समय लगता है। पोस्टर के मामले में तो विज्ञापन और प्रचार- अभियान ने एक गंभीर संकट खड़ा कर दिया है। पोस्टर की प्रभाव- क्षमता यदि उसकी संभावना है तो सीमा भी है।

कविता और पोस्टर दोनों स्वतंत्र कला- विधाएं हैं। जब किसी कला- अभिव्यक्ति के अस्तित्वगत रूप पुराने पडने लगते हैं तो उन कला- रूपों को लेकर सर्जकों में असंतोष उत्पन्न होता है। यहीं से नये कला- रूपों की खोज और कला में प्रयोगों का सिलसिला शुरू होता है। कोई कला- रूप कब पुराने पडने लगते हैं- इस सवाल पर भी यहां विचार कर लेना आवश्यक है। निश्चय ही, इसके लिए स्थितिजन्य परिवर्तन ही प्रमुख कारक हैं। हालातों में आये परिवर्तन के समानांतर कई बार अनेक कला- रूप बहुत समर्थ नहीं रह जाते। ऐसी स्थिति में सर्जकों को सामान्यतः दोहरे असंतोष का सामना करना पड़ता है। एक ओर तो उन्हें बदले हुए हालातों को अभिव्यक्ति देनी होती है, दूसरी ओर मौजूदा कला- रूपों की अपूर्णता के कारण उन्हें नये कला- रूपों की खोज करनी होती है। नये कला- रूपों की सृष्टि के लिए एक सर्जक को प्रयोगों की लंबी श्रृंखला और रचनात्मक जद्दोजहद से गुजरना होता है।

एक समय कलाओं में आधुनिकतावादी अवधारणा के अन्तर्गत अमूर्तन के गूढ़ अभिव्यक्ति रूपों का सहारा लिया गया। एक हद तक सर्जकों का ऐसा करना सही और स्वाभाविक भी था क्योंकि जीवन- यथार्थ की जटिलताओं में तकनीकी क्रांति ने अभूतपूर्व वृद्धि कर दी थी। ऐसी स्थिति में साहित्य, रंगमंच और ललित- कलाओं की शिल्प और संरचनागत गूढता तथा प्रयोग- धर्मिता के अनेक आयाम सामने आये। लेकिन आधुनिकतावादी दौर की जटिल और अमूर्त कलाओं की गंभीर सीमा यह सामने आयी कि बहुसंख्य जनता से कृति का जीवंत संवाद समाप्त होने लगा। उधर मीडिया ने दृश्य कलाओं की कई संभावनाएँ सोख लीं। 

इस परिप्रेक्ष्य में लगभग सभी कलाओं में प्रति- आन्दोलन सामने आते हैं, जैसे काव्य में जन- गीत, पेंटिंग में कोलाज और पोस्टर, संगीत में आह्वान और प्रयाण- गीत, स्ट्रीट प्ले और  सिनेमा में वृत्त- चित्र। इस तरह कलात्मक स्तर पर संप्रेषण के एक शक्तिशाली माध्यम के रूप में पोस्टर का नवोन्मेष हुआ। उल्लेखनीय हैं कि कला- रूपों में ये परिवर्तन और नये कला- रूपों का उद्भव सामूहिक जन- आन्दोलन अथवा अभियानों का अवदान था, इसलिए इसी प्रक्रिया में विभिन्न कलाओं के अन्तर्संबंध और अधिक प्रगाढ़ हुए। कविता- पोस्टर इसी अन्तर्क्रिया का परिणाम है। कविता और चित्रकला के प्राचीन अन्तर्संबंध का यह अधुनातन प्रतिफलन है।

कविता- पोस्टर की पृष्ठभूमि में यह अवधारणा है कि एक कला दूसरी कला को समझने और उसका आस्वादन करने में सहायक हो सकती है। प्लूटार्क ने घोषणा की थी , कविता बोलती तसवीर है और तसवीर मूक कविता। किसी हद तक यह कथन सही है, फिर भी इससे यह अर्थ नहीं निकाला जा सकता कि कविता सिर्फ बोलती तसवीर है और तसवीर सिर्फ मूक कविता। कविता और चित्र की रचना- प्रक्रिया और दर्शक- पाठक द्वारा इनकी भाव- ग्रहण प्रक्रिया में काफी समानता है। दोनों कृतिकार विचार, वस्तु और कल्पना से सृजन आरंभ करते हैं। कविता में भी चित्रों ( बिम्बों) व प्रतीकों का सहारा लिया जाता है। कविता में शब्द, शब्द खंडों, वाक्य खंडों से समूची संरचना की जाती है। चित्र में चित्रकार कलम व कूंची से रेखांकन करके रंग भर देता है। प्रकाश और छाया का प्रकारान्तर से दोनों में प्रयोग होता है। दोनों ही तरह की कृतियाँ ऐच्छिक अनुभूति से चेतना तक ले जाती हैं।

यह कहा जाता है कि चित्रकार की सीमाएँ अभिव्यक्ति को लेकर हैं, जबकि कवि की सीमाएँ चित्रात्मकता को लेकर हैं। यह सच्चाई है कि चित्र बोल नहीं सकता तथापि उच्च कोटि की कला मुखर होती है। कविता- पोस्टर इसका प्रमाण है कि दोनों कलाओं का सह- संयोजन किया जाये तो कृतियों का सामूहिक प्रभाव बढ जाता है। कविता- पोस्टर ने मूल्यवत्ता को ठोस आधार प्रदान किया है। कविता- पोस्टर में उकेरा गया चित्र कुछ न कुछ दर्शाता है। इसी तरह पोस्टर के लिए चुनी कविता में कथ्य अनेक संदर्भ समेटे होता है। कविता- पोस्टर रूपाकृतियों और कविता में दृश्य- बिम्बों को पुनर्प्रतिष्ठित करता है। स्पष्टतः ये चीजें सर्जकों को जीवनोन्मुख करती हैं। इस तरह कलाओं के संश्लेषण के रूप में कविता- पोस्टर पीटर फुलर के उस प्रसिद्ध नारे का अनुकरण हैं : जीवन की कक्षा में लौटो!

                             ( आकृति, मार्च- 1993 से अंश)

कविता- पोस्टर- कुंवर रवीन्द्र

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