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स्मृतियों में गाँव



प्रसिद्ध समाजशास्त्री श्यामाचरण दुबे ने एक गाँव के विविध आंकड़े अपने अध्ययन के लिए जुटाये। लेकिन दुर्भाग्यवश काम आगे बढने से पहले ही वह सामग्री खो गयी। कहते हैं कि दुबे जी ने अपनी स्मृतियों के आधार पर" एक भारतीय गाँव "पुस्तक तैयार की जो समाजशास्त्रीय दुनिया में एक क्लासिक का दर्जा रखती है। ज्ञानचंद बागडी ने भी अपनी स्मृतियों से आखिरी गाँव किताब लिखी है, हालांकि यह उनका खुद का गाँव है जहां उनका बचपन और किशोरावस्था बीती है। काल के लिहाज से भी ये स्मृतियाँ बहुत पुरानी नहीं हैं।

आखिरी गाँव को उपन्यास कहा गया है, उपशीर्षक में एक भारतीय गाँव की आत्मीय गाथा। कवि कृष्ण कल्पित ने इसका नामकरण किया है और तर्क यह है कि हरियाणा से लगा यह राजस्थान का सीमांत गाँव है- रायसराना। एक विधा के तौर पर अब तक हिन्दी उपन्यास की संरचना में इतनी तोडफोड और नवोन्मेष हो चुके हैं कि उसकी संरचना ही बदल गयी है। फिर भी फिक्शन के अर्थ में तो इसे उपन्यास कहना मुश्किल है। इसका मुख्य पात्र स्वयं लेखक है और उसने अपने बारे में काफी कुछ कहा है। तो क्या हम इसे आत्मकथा कहें? कोई कोशिश करे तो इसे दलित आत्मकथाओं के सिलसिले में शुमार कर सकता है क्योंकि लेखक की जाति ( खटीक) भी दलित श्रेणी में आती है। किन्तु ऐसी चेष्टा में तब निराश होना पडेगा, जब वहाँ वैसा अस्मिता विमर्श नहीं मिलेगा, जोकि ऐसी कृतियों की पहचान बन गया है। 

बहरहाल, अगर वृत्तांत को भी उपन्यास मान लें तो यह एक सफल कृति है। यहाँ मैं आख्यान को अलग कर रहा हूं क्योंकि अंतत: उसमें उतार- चढाव वाला एक टेढा- मेढा कथानक चलता है। यहाँ केन्द्र में गाँव है और उसके तमाम पहलुओं की जीवंत डिटेल्स हैं। एक काल- विशेष में लेखक का अपना जीवन वृत्तांत भी गाँव के समानांतर चलता रहता है। डा. अम्बेडकर ने जिन गाँवों को दलितों के नरक कहा था, यह वो गाँव नहीं है। यह गाँव उनमें से है जिन्हें वर्चस्व के विमर्श में महानगरों के उपनिवेश कहा गया है।

ज्ञानचंद बागडी का साहित्य में कोई लंबा पूर्व- इतिहास नहीं है। वे अपनी अवांगर्द जीवन- यात्रा में समाजशास्त्र- मानवशास्त्र पढते- पढाते इधर आ निकले हैं। हिन्दी के साहित्य की दुनिया भी असल में फकीरों की दुनिया है, इसमें बागडी जी का स्वागत होना चाहिए। कहा जाता है कि कम से कम एक किताब लिखने का कच्चा माल ( अनुभव, स्मृतियाँ इत्यादि) तो हर व्यक्ति के पास होता है। बागडी जी की यह पहली किताब है। उन्होंने दो कहानियाँ भी मुझे पढने को दीं, तब तक यह उपन्यास छपने जा चुका था। मुझे पक्का भरोसा है कि उनकी सृजन- यात्रा की यह शुरूआत है, जो भरोसा जगाने वाली है। उनके पास बतकही की स्वाभाविक खूबी है जिसके चलते ऐसी सहज प्रवाहमान भाषा का वृत्तांत रचा गया है, जो पाठक को  बांध लेता है। उनके पास कथ्य का कोई महत्वाकांक्षी व घोषित एजेंडा नहीं है। फिलहाल तो यह सीमा ही उनकी विशेषता बन गयी है कि वे पूर्वाग्रह और अतिरंजनाओं से मुक्त रहे हैं। यद्यपि कहीं- कहीं आत्मश्लाघा  और विषयान्तर खटकते हैं।

इस प्रसंग में मुझे कथाकार प्रियंवद की एक व्याख्यान में कही यह बात उल्लेखनीय लगती है: ... साहित्य के पास अपनी सभ्यता की सांस्कृतिक स्मृतियाँ हैं तो आंचलिक लेखकों के पास एक विशेष भूखंड की स्मृतियाँ हैं। जडों से उखडे जलावतन लेखक कभी अपने देश की स्मृतियों से अलग नहीं होते। पहाडों, गांवों को छोडकर शहरों में आने वाले लेखकों की रचनाओं में उनका वही मौलिक परिवेश उनकी रचनाओं की भित्तियाँ रचता है। अपने समस्त रूपों में ये स्मृतियाँ रचना के अंदर इतने गहरे तक धंसी होती हैं कि रचनाकार अनायास, अचेतन रूप से बार- बार उन्ही बिंबो, दृश्यों को दोहराता है।........
स्मृतियाँ हमारी रचनात्मकता का वास्तविक आधार हैं। एक रचनाकार के रूप में हमें यत्न से उन्हें पल्लवित- पुष्पित रखना होता है।

#पढते-पढते/२५

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