जो टूट गये- उनके लिए : मायामृग
१.
बकलम खुद : मायामृग नाम मैं ने खुद रखा। परिजनों ने रखा था नाम संदीप कुमार, जो अब सिर्फ सरकारी रिकॉर्ड में रह गया है। मेरा जन्म 26 अगस्त,1965 को फाजिल्का ( पंजाब) में हुआ। जन्म के दस दिन बाद ही परिवार को पंजाब छोड हनुमानगढ़ ( राजस्थान) आना पड़ा, मेरे जीवन के शुरुआती 25 साल यहां बीते। इसके बाद जयपुर आकर बस गया। पहले शिक्षा विभाग में सरकारी नौकरी की और नौकरी छोड़कर पत्रकारिता। इसके बाद मुद्रण और प्रकाशन को व्यवसाय के रूप में चुना। संप्रति प्रकाशन और लिखने- पढने के काम में व्यस्त हूं।
२.
पहले तो किताब के पिछले कवर पर छपे मायामृग के इस परिचय को मुकम्मिल करने की जरूरत है। यह गुजरी शताब्दी का आखिरी दशक था। मैं ने मायामृग की कविताएँ खबरनवीस में देखी। इस नाम ने तो आकर्षित किया ही, कविताओं ने भी ध्यान खींचा। सत्यनारायण ( जो तब खबरनवीस के संपादक थे।) ने पूछने पर बताया कि यह बड़ा अलग सोचने वाला युवा है। मैं जयपुर आ चुका था और आई डी एस में काम कर रहा था। किसी काम से भारत ज्ञान- विज्ञान समिति के आफिस जाना हुआ। वहाँ से निकलने ही वाला था कि वीरेन्द्र विद्रोही ने कहा- थोडी देर रुको, तुम्हें एक और एक्टिविस्ट - साहित्यकार से मिलवाते हैं और इस तरह उनसे पहली मुलाकात हुई। इसके बाद तो झालाना डूंगरी की थडियों पर मिलते रहते। बगल के राज्य संदर्भ केन्द्र में मायामृग और मधुमिता अक्सर साथ- साथ आते थे। ( बाद में उनका यह साथ स्थायी हो गया।) तभी कभी मैं ने उन्हें बताया कि मैं तो यहां से अपना अखबार दिशाबोध निकालने आया था। माया ने बताया कि वह अपना प्रकाशन शुरू करने के इरादे से आया है और इसके लिए अपनी आफसैट प्रेस लगायेगा। मैं ने कहा, अब तो दिशाबोध तुम्हारी प्रेस से ही निकालेंगे।
इसके बाद पता चला कि मायामृग ने शिक्षा विभाग जोइन कर लिया है। काफी अर्से बाद एक दिन वे मिले तो बोले कि आ जाओ, अपना दिशाबोध शुरू कर दो। मैं ने कहा, कहां है प्रेस तो बोले - घर ही आ जाओ। तब असल में वे मधुमिता के पास कनाडा जाकर आये थे और वहाँ से एक कंप्यूटर के साथ लौटे थे। उन्होंने कहा, असली चीज ये है, जब तक प्रेस नहीं होगा कहीं से भी छपा लेंगे। दिशाबोध शुरू हो गया और बोधि प्रकाशन भी। उन्होंने कथाकार रामकुमार ओझा के यहां ट्रेडल प्रेस पर छपा दिशाबोध देखा था, अब उसे समूचा नयी तरह से डिजाइन किया। ओझा जी के लिए उनके मन में बहुत आदर था। उनकी उपेक्षा से वे बहुत व्यथित थे। बोधि के पहले सैट में उन्होंने रामकुमार ओझा की नयी किताब शामिल की।
उन दिनों इनके दो मित्र वहाँ अक्सर मिलते थे जो अपने कैरियर की जद्दोजहद में जयपुर आये थे। उनसे अक्सर हमारी गंभीर बहसें होती रहतीं। मेरे साथ हितेन्द्र और दीपक होते। उनमें से एक राजेश मोहता ख्यात दार्शनिक छगन मोहता के परिवार से था और बहुत मेधावी युवा था। दूसरे साथी का नाम मैं भूल गया हूं। उन लोगों ने तमाम दार्शनिक व साहित्यकारों को पढा हुआ था। हम तो मार्क्सवादी थे ही, मोहता हमारे तर्कों का तीखा खंडन करता। वह मार्क्सवाद को शुद्ध दर्शन नहीं मानता था बल्कि इसे एक आर्थिक दृष्टि कहता था। मायामृग को वे बडे भाई की तरह मानते थे और इस दिशा में दीक्षित करने का श्रेय उन्हे ही देते थे। मैं ने नोट किया, सैद्धान्तिक बहसों में मायामृग प्रायः हस्तक्षेप नहीं करते थे, इसमें शायद उन्होने अपना सम्यक मार्ग पा लिया था, वे सिर्फ साहित्यिक चर्चाओं में हिस्सा लेते थे। हमारा यह मायामृग से नये तरह का परिचय था।
बाद में बोधि का प्रेस और बाकायदा फर्म भी हो गयी, वह शहर में थी। थोडे दिन बाद दिशाबोध वापस बंद हो गया। फिर पता चला कि मायामृग ने नौकरी छोड दी है और पूरे तौर पर प्रकाशन को संभाल लिया है। कुछ मित्रों ने इसे बहुत रिस्की माना, उनकी स्थायी नौकरी प्रथम श्रेणी की थी। शिक्षक के रूप में वे काफी लोकप्रिय रहे। फिर वे एक बार प्रदीप भार्गव के साथ नाटक करते नज़र आये। कोटा में शिवराम द्वारा आयोजित विकल्प सांस्कृतिक मंच के स्थापना समारोह में वे अपनी स्वतंत्र नाट्य टीम के साथ शामिल हुए। यशवन्त व्यास के आग्रह पर उन्होंने दैनिक भास्कर जोइन किया। वहाँ वे कवि संजीव मिश्र के साथ बैठते थे। संजीव भी वहाँ यशवन्त के बुलावे पर गये थे। दोनों में काफी साम्य था और भास्कर के सामने चाय की थडियों पर इनके साथ बैठक खासी समृद्धिकारी होती थी। फिर बोधि ने उन्हें फुसरत नहीं दी। जब हमने मीमांसा निकालने का तय किया तो इसे लेकर वहीं गये। मेरा तो कपास ओटने में हरिभजन प्रायः छूटता रहा लेकिन मायामृग ने किसी हद तक सिद्धि हासिल कर ली।
३.
मायामृग की यह सिद्धि एकांगी ही रही होती यदि उनसे कविता छूट गयी होती, और बोधि के बढते कारोबार को देखते हुए ऐसी आशंका अस्वाभाविक नहीं थी। लेकिन प्रीतिकर आश्चर्य की तरह वे कविता में भी आगे बढे और दर्शन में अपनी दिलचस्पी को उन्होंने अपनी अन्तर्दृष्टि का हिस्सा बना लिया जो उनकी कविताओं की अन्तर्धारा में व्याप्त रहती है। अपनी दार्शनिक संपृक्ति को वे कविता के अनुपूरक गद्य में भी व्यक्त करते हैं। बहरहाल, उस पर चर्चा फिर कभी, अभी तो हम उनके तीसरे कविता संकलन पर संक्षिप्त- सी बात कर रहे हैं। जमा हुआ हरापन मुझे कई कोणों से उल्लेखनीय लगता है। उनका पहला संकलन- शब्द बोलते हैं( 1988) मेरे देखने में नहीं आया। दूसरा कविता संकलन... कि जीवन ठहर न जाये ( 1999) मैं ने पढा था। उसमें कथ्य से ज्यादा कहने की शैली और शिल्प के लिए कवि की बैचेनी को साफ परिलक्षित किया जा सकता है। एक अंतराल के बाद 2013 में प्रकाशित इस संकलन में कवि अपनी अन्तर्वस्तु और कहन के ढंग को लेकर आश्वस्त है। अपने रचनात्मक संकल्प की तरह वे अपनी एक काव्य- पंक्ति को मुख्य आवरण पर देते हैं -जो टूट गया.... मैं तो उसके लिए लिखता हूं कविता...
यह जो टूट गया, प्रचलित अर्थ में मेहनतकश- सर्वहारा वगैरह नहीं है। जिस कविता से ये पंक्ति ली गयी है वहाँ तो यह मिट्टी का घडा है जो टूट गया। मिट्टी को सहेजने से लेकर हाट बाजार तक कई बर्तन इस नियति को प्राप्त होते हैं। इस तरह यह त्रासदियों पर ही नहीं, उन विडम्बनाओं और परिघटनाओं पर भी फोकस्ड हैं जिनके चलते त्रासद और विषष्ण स्थितियां बनती हैं। जैसा कि स्पिनोजा कहते हैं: घटनाओं या दुर्घटनाओं पर प्रसन्न या दुखी होने के बजाय हम उनकी वजह समझें, यही बेहतर है। मायामृग अपनी अन्तर्दृष्टि और नाट्य- अनुभवों से अर्जित इंपैथी का प्रयोग ऐसे ही संधान में करते हैं। हरापन जीवन की लाइफलाइन का द्योतक माना जाता है, खुद मायामृग की कुछ पिछली कविताओं में यह इसी अर्थ में आया है। किन्तु संकलन का शीर्षक बनने वाली कविता पक्ति में वे कहते हैं कि जमा हुआ हरापन अपने में गिरावट है। यह हरीतिमा का काई में बदलना और क्रमशः नष्ट होने की ओर बढना है।
मायामृग की कविताएँ मंद स्वर में पाठक को आत्मीय संबोधन हैं। लेकिन ये सच से मुंह नहीं चुरातीं और झूंठी दिलासा देने का भी यहां कोई उपक्रम नहीं है। प्रेम को उन्होंने अपनी तरह परिभाषित किया है- तुम्हारा मेरा प्रेम, दरअसल, रंग और सुगंध की तलाश है... । सच के संधान का प्रयास है तो संशय तो होगा ही- सच में सच दिखेगा भी... बस संशय था। हालात प्रेम की प्रतीति को बदल देते हैं- कि अब इतना वक्त नहीं रहा, जब केवल वक्त काटा जाये और संबंधों से पैदा ऊब दिनचर्या का हिस्सा है। दिन बीतते... रात रीतते .. अपने से ऊबे, वक्त से उकताये, संबंधों से चिढे हुए.. ऐसी ही स्थितियों में-
जो गिरते को थामने जैसा है...
शायद इसी को प्रेम कहते होंगे...
हर जने का अपना अकेलापन है। तब-
कोई क्योंकर जान पाए
उदासियों के पीछे कौन रहता है..
संकलन में ताज और आगरा के किले की पृष्ठभूमि में लिखी कविताओं में भी हम यह तिर्यक दृष्टि पा सकते हैं:
लौटते हुए सैलानी... प्रेम की प्रतिकृतियां देखकर...। कई कविताओं में क्षीण होते संबंधों की पडताल है, या कहेृ यही ठहरा हुआ हरापन है। दो बौद्धिकों के परस्पर दाम्पत्य - सा नीरस दिन था यह..। वह क्या है जो रीत रहा है, कवि लगातार उस आत्मिक शून्य को चीन्हने की कोशिश करता है। पिता और मां पर बहुत मार्मिक कविताएँ हैं, बल्कि यह संकलन कवि ने अपनी माँ को ही समर्पित किया है। पिता जो अब चुप रहने लगे हैं, उनका मत बहुमत में है कि अल्पमत में, पता नहीं.. वे अन्तर्मुखी होते जा रहे हैं। बेटा बड़ा हो रहा है तो पिता से उसके संवाद छोटे होते जा रहे हैं। अब पिता समझाते हैं मां को और मां पिता को समझाती है। उनकी मां पर लिखी कविताएं भारतीय निम्नवर्ग की स्त्री की वेदना और अनदेखे संघर्ष का आख्यान हैं। इसके कंट्रास्ट में उनके यहां प्रेम का मार्ग खोजते फकीर बस्तियाँ बसा लेते हैं।
स्त्रियों पर भी मायामृग की कविताएँ प्रचलित मुहावरे का अतिक्रमण करती हैं। एक घर में एक लड़की श्यामा की उपेक्षा का झोल वाली चारपाई कविता में बड़ा दारुण वर्णन है। इस क्रम की एक कविता में वे किचन को स्त्री की कब्रगाह कहते हैं। साथ ही समूह -बद्धिता में वे उनकी मुक्ति का रास्ता देखते हैं क्योंकि वे रोती समूह में हैं तो गाती भी सामूहिक हैं। मायामृग समाज के विसंगत यथार्थ की भी मीमांसा करते हैं। डर में जीना भी अगर जीने जैसा ही होता है, तो हर पल जीता हूं मैं...। वे अतीत और वर्तमान को नैरंतर्य के बाबजूद भिन्नता में भी देखते हैं- मुहावरे वक्त के साथ बदलते हैं, किंवदंतियां पीछा नहीं छोडतीं... उम्र भर। इस संकलन में कुछ पंक्तियाँ कुछ कविताओं के मध्य या आखिर में कोष्टक में दी गयी हैं जो गद्य में हैं। उनका काव्यात्मक गद्य संभवतः इसी का विस्तार है। संवाद प्रकाशन के आलोक श्रीवास्तव के साथ मायामृग ऐसे दूसरे रचनाकार हैं जो प्रकाशन से संबंद्ध हैं।
आखिर में संकलन से दो छोटी कविताएँ-
शब्दों की जरूरत
तब... जब. कहने को बहुत था
शब्दों की जरूरत ना थी
अब.. जब कहने को कुछ नहीं
शब्दों की जरूरत नहीं... ।
( फिर भी तुम हमेशा शब्दों में अर्थ ढूंढते रहे, हमारे बीच जो था सब अर्थ खोता गया...)
लकड़ियाँ बीनतीं लडकी
उम्र भर लकड़ियाँ बीनती लड़की
धीरे- धीरे कब
खुद लकड़ी हो गयी
पता नहीं चला ।
पहचान भी न पाता
अगर
सब लकडियों के जलकर बुझने के बाद
एक सुलगती ना रह जाती...।
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