एक प्रयोगशील कृति अपने साथ कई तरह की चुनौतियां लेकर आती है। बेशक समीक्षा की भी, किन्तु उससे पहले आस्वादन को लेकर। हमारी जैसी प्रचलित विधाएं हैं, वैसा ही पढने और आस्वाद का अनुकूलन हो चुका होता है। तब नयी अन्तर्वस्तु और शिल्प- शैली से गुजरने पर अपनी तरह की बाधाएं होती हैं। ऐसे में हमें क्या करना चाहिए? मैं तो वही बता सकता हूं जो करता हूं। पहली रीडिंग में आप खुद को रचनाकार के भरोसे पर छोड दें और अपनी आस्वाद- रूढियों को तजकर उसके साथ सहयात्रा करें। यदि प्रयोग सफल है तो अगली रीडिंग में आप उन चीजों से तादात्म्य स्थापित कर पायेंगे जिन्हें रचनाकार आप तक सम्प्रेषित करना चाहता है बल्कि कृति आपको दूसरे पाठ के लिए स्फूर्त कर देगी। अगर प्रयोग में दम नहीं है तो इस प्रक्रिया के बाद आप वापस किनारे पर होंगे।
अनिरुद्ध उमट की कविताएँ हों अथवा कथा साहित्य- उनकी प्रयोगशीलता मुझे लुभाती रही है। मैं आश्वस्ति से उनकी रचनाओं में उतरता हूं और किसी मोड पर यदि नयेपन से बावस्ता होता हूं तो यकीन करता हूं कि इसमे जरूर कोई खास बात है। निश्चय ही वहाँ ऐसी अनेक खास बातें होती हैं। अनिरुद्ध की रचनाशीलता सेे पहचान हो जाने के बाद आप उनके सृजन- प्रवाह में बह सकते हैं। एक तरह से वे अपने पाठक की संवेदना को भी परखते हैं लेकिन उनके लेखन में स्नात होने के बाद पाठक भी वह नहीं रहता है।
नींद नहीं जाग नहीं- अनिरुद्ध की नयी कृति है जिसे स्त्री- जीवन के बीहड एकान्त का प्रयोगधर्मी आख्यान कहा गया है। ममता ( कालिया ) जी ने अपनी आत्मीय और मूल्यवान टिप्पणी में इसे हिन्दी के कुछ विशेष उपन्यासों के साथ संदर्भित किया है। जबकि अशोक वाजपेयी इसे उपन्यास और कविता का विलयन बताते हैं, साथ ही इसमें कुछ अन्य विधाओं की प्रतिच्छायाएं देखते हैं। उनके आमुख का अंतिम अंश है : ... आमतौर पर रजा पुस्तक माला में हम मूल हिन्दी उपन्यास या कहानियाँ शामिल नहीं करते हैं। अनिरुद्ध उमट की कृति नींद नहीं जाग नहीं इसलिए अपवाद है क्योंकि वह कई विधाओं की सीमाओं का अतिक्रमण कर रची गयी है। उसमें कथा और कविता दोनों एक- दूसरे में घुले- मिले हैं। ऐसे निर्भीक प्रयोग कथा और कविता दोनों की रूढियां ध्वस्त कर नया स्वाद, नयी सार्थकता अर्जित करते हैं।
यहाँ उल्लेख कर दूं कि यह वैसा उपन्यास नहीं है जिसमें आख्यान के बीच- बीच में कवितांश आ जाते हों जैसा हम नदी के द्वीप से लगाकर अभी तक कई उपन्यासों में देखते रहे हैं। बल्कि यहाँ अन्तर्वस्तु के लिए प्रयुक्त भाषा में ही कविता अन्तर्भुक्त और विन्यस्त है। कृति हमें यह टोहने का अवकाश ही नहीं देती कि गद्य और कविता की सीमाएँ कहां मिल रही हैं और कहां हम पार्श्व के संगीत या पेन्टिग में खो गये हैं।
कृति के केंद्र में एक स्त्री है जो स्मृतियों के वर्तमान में जी रही है। ये प्रेम- पगी स्मृतियाँ हैं। कहा गया है कि प्रेम में एक न्यूरोसिस है। स्त्री में यह न्यूरोसिस प्रेम है। इस स्त्री का प्रेम इतर है- स्मृतियों और वर्तमान का अतिक्रमण करता हुआ और एक राग की मानिंद अपनी अनुगूंजों में प्रवाहमान। निविड एकान्त में अपने ही भीतर- बाहर विचरती एक स्त्री। पुरुष वहाँ स्मृति- शेष है लेकिन स्त्री के लिए ये स्मृतियाँ ही आलम्बन हैं तथापि जीवन रीतता जा रहा है। कृति की संक्षिप्ति और बिम्बधर्मी भाषा गहरे उतर जाती है : लालटेन की मद्धिम लौ सी वह आ रही है। उसके बाल खुले हैं।
एक और प्रसिद्ध उक्ति याद आ रही है : स्त्रियाँ अपने शरीर में सांस्कृतिक लिपियों का दुख भोगती हैं। ऐसी एक लिपि यहाँ दर्ज है जिसे डिकोड करने की जरूरत है। आपका वास्ता ऐसे वाक्यों से पडेगा : सन्नाटा भी इतना सन्नाटा है कि सन्नाटा नहीं रहा है। और, शेष इतना शेष रहा कि शेष भी न रह सका।
इसे पढने के उपरांत कथा की प्रतीतियां, छवियां और बिम्ब तथा संवादों की प्रतिध्वनियां हाण्ट करती रही हैं। एक विस्मृत शायर का शे र भी याद आता रहा है -
दिल की बस्ती उजाड सी क्यूं है
क्या यहाँ से चला गया कोई ?
यह ऐसी ही एक उजाड बस्ती की काव्य- कथा है जो वाणी प्रकाशन से आयी है।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें