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मारवाडियों की विरासत



मारवाडियों की विरासत ( Marwaris Legacy) शीर्षक इस पुस्तक को काफी टेबल बुक ( coffee table book) कहा गया है। मुझे नहीं मालूम कि इसके क्या मायने होते हैं। मेरे लिए तो यह एक ओर दिलचस्प इतिवृत्त हैं, दूसरी तरफ एक संदर्भ ग्रंथ। मारवाड़ी समाज के इतिहास सहित हर पहलू पर करीबन ५०० पृष्ठों के इस वृहदकाय ग्रंथ में विस्तृत शोध के बाद तथ्यों और विवरणों को संकलित- संयोजित किया गया है।  डी. के. टेकनेत के इस रोचक वृत्तान्त को पढने में समय तो लगा लेकिन यह अनुभव मुझे अनेक नयी जानकारियों से समृद्ध करने वाला था। इनमें से चंद बातें यहां आपसे साझा कर रहा हूं।

पहली बात, मारवाडियों का इतिहास उससे कहीं अधिक पुराना है जितना हम सोचते हैं। यह पुस्तक बताती है कि मुगल काल तक मारवाड़ी व्यापारियों ने ऐसी हैसियत हासिल कर ली थी कि इन्हें राज- दरबारों में दीवान, मंत्री व सलाहकार जैसे पद दिये गये थे। उस समय आवागमन के हालातों के मद्देनजर एशिया महाद्वीप के इस हिस्से पर व्यापारिक मार्ग विकसित कर व्यापक पहुँच प्राप्त कर लेना निश्चित ही उनकी अदम्य जिजीविषा और दूरंदेशी का परिचायक है। भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के वर्चस्व स्थापित होने से पहले मारवाडियों का फ्रांसीसी, डच वगैरह सभी विदेशी सौदागरों से व्यापारिक संबंध था। ईस्ट इंडिया कंपनी ने जानबूझकर उनके व्यापारिक तंत्र को ध्वस्त कर उनका आर्थिक हाशियाकरण किया। यही कारण था कि मारवाडियों ने १८५७ के जन- विद्रोह को परोक्ष और प्रत्यक्ष समर्थन दिया। पुस्तक में इसके प्रामाणिक संदर्भ हैं।

१८५७ के बाद जब भारत का औपनिवेशिक शासन ब्रिटिश राज द्वारा सीधे संचालित होने लगा तो उन्होंने मारवाडियों को व्यापारिक गंजाइशें देना शुरू किया। इसके परिणाम स्वरूप जल्दी ही मारवाडियों ने इस क्षेत्र में शीर्ष स्थान पा लिया। यही नहीं, उन्होंने ब्रिटिश शासन का इतना विश्वास अर्जित कर लिया कि वे प्रशासनिक मामलों में इनसे सलाह- मशविरा करने लगे। उन्होंने देशी रियासतों को फरमान जारी किया कि कोई मारवाड़ी व्यापारियों को किसी भी तरह परेशान नहीं करेगा। उनके प्रभाव का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि आज के राजस्थान क्षेत्र में रेल लाइन बिछाने में उन्होंने ब्रिटिश लोगों को कर्ज दिया। ऐसा ही कर्ज़ एक मारवाड़ी व्यापारी ने बीकानेर के महाराज को नहर बनाने के लिए दिया था। 

इससे आप यह नतीजा मत निकालिये कि मारवाड़ी ब्रिटिश परस्त हो गये थे। जब ब्रिटिश सत्ता के बाद उपनिवेश विरोधी आन्दोलन आरंभ हुआ तो मारवाड़ी लोगों ने उसे सहयोग देना शुरू कर दिया। गांधी जी के स्वातंत्र्य संग्राम में आने के बाद तो मारवाड़ी लोग हर तरह से सक्रिय हो गये। उन्होंने स्वतंत्रता संघर्ष से जुड़े विभिन्न नेताओं, गतिविधियों और कांग्रेस के सम्मेलनों को कितनी मदद की, पुस्तक में इसका दस्तावेजी ब्यौरा है। यही नहीं, उन्होंने पुलिस के डंडे खाये, जेल गये और कई को तो मृत्यु दंड तक मिला। जमनालाल बजाज, सीताराम सेक्सरिया और भागीरथ कानोडिया जैसे अनेक लोग हैं जिनका इस संघर्ष में ऐतिहासिक अवदान है। हनुमानप्रसाद पोद्दार को हम गीता प्रेस गोरखपुर के संस्थापक- संचालक के रूप में जानते हैं ( कुछ उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ा मानते हैं) , पुस्तक से पता चलता है कि वे बड़े सक्रिय स्वतंत्रता सेनानी थे और गांधी जी के नजदीकी लोगों में थे। बाद में वे सक्रिय राजनीति छोडकर और व्यवसाय परिवार को संभलाकर गीता प्रेस में जुट गए।

स्वतंत्रता के बाद मारवाडियों की आर्थिक स्थिति से तो सभी वाकिफ हैं। संक्षेप में यही कि उन्होंने वाणिज्यिक व्यापार से देश के औद्योगिक पूंजीवाद की ओर रूपान्तरण में निर्णायक योगदान किया है। जिस आत्म- निर्भरता की बात आज की जा रही है, वह पहले से ही उनके एजेंडे में रही है। ऐसे सैंकड़ों विकास कार्य हैं जिनमें पहल का श्रेय उन्हें जाता है। यही कारण है कि भूमंडलीय परिदृश्य में वे कई कार्पोरेट क्षेत्रों में आज भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।

किन्तु सबसे महत्वपूर्ण भूमिका उनकी परोपकारी गतिविधियों के संदर्भ में है। वे कभी अपनी जमीन को नहीं भूले और शिक्षा, स्वास्थ्य सहित जनहित के अनेक क्षेत्रों में उन्होंने उल्लेखनीय योगदान किया है। यह काम वे तब से कर रहे हैं जब चैरिटी अथवा कार्पोरेट सोशल रेस्पोंसिबिलिटी जैसी अवधारणाएं दूर- दूर तक अस्तित्व में नहीं थी। इन अवदानों, विशेषकर सांस्कृतिक क्षेत्र में मारवाडियों की भूमिका का पुस्तक में विस्तार से उल्लेख है। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि इसमें मारवाड़ी महिलाओं की भूमिका को भी खासतौर से उल्लिखित किया गया है, इसमें स्वातंत्र्य संघर्ष में उनकी धरने- प्रदर्शनों में भागीदारी हो अथवा परोपकारी गतिविधियों में सहयोग, सामाजिक कार्यों में संलग्नता हो अथवा  अपने कारोबार को स्वतंत्र नेतृत्व देने का प्रसंग, उनके बहुआयामी व्यक्तित्व को प्रस्तुत किया गया है। एक कमी की ओर मेरा ध्यान गया कि मारवाडियों के प्रसंग में बंजारों के ऐतिहासिक अवदान का ग्रंथ में कहीं कोई जिक्र नहीं है जो वाणिज्यिक कारोबार में इनके सहयोगी और पूरक थे और कथित विकास की प्रक्रिया के समानांतर में वे लगातार पिछडते हुए अंततः दृश्य से ही बाहर हो गये।
ग्रंथ के संदर्भ में संपर्क:  डी. के.टिकनेत (M 9799398501)

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